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प्रत्याख्यान के उदय से (देसजमो) देश संयम (होदि) होता है।
गदिणामुदयादो (चउ) गदिणामा वेदतिदयउदयादो। लिंगत्तयभाव (वो) पुण कसायजोगप्पवित्तिदोलेस्सा॥17॥
गतिनामोदयात् गतिनामा वेदत्रिकोदयात् ।
लिंगत्रयभावः पुनः कषाययोगप्रवृत्तितो लेश्याः ॥ अन्वयार्थ -(गदिणामुदयादो) गतिनाम कर्म के उदय से(गदिणामा) नरक गति आदि चार गति होती है । (वेदतिदयउदयादो) तीन वेदों अर्थात् स्त्रीवेद, पुरुषवेदएवं नपुंसकवेद के उदय से(लिंगत्तयभाव) तीन लिंग रूप भाव होते हैं (पुण) तथा (कसाय जोगप्पवित्तिदो) कषाय से युक्त योग की प्रवृत्ति को(लेस्सा) लेश्या कहते हैं।
जाव दु केवलणाणस्सुदओ ण हवेदि ताव अण्णाणं । कम्माण विप्पमुक्को जाव ण तावदु असिद्धत्तं ॥18॥ यावत्तु के वलज्ञानस्योदयो न भवति तावदज्ञानं ।
कर्मणां विप्रमोक्षो यावन्न तावत्तु असिद्वत्वं ॥ अन्वयार्थ 18- (जाव दु) जब तक (केवलणाणस्सुदओ) केवल ज्ञान का उदय (ण हवेदि) नहीं होता है (ताव दु) तब तक (अण्णाण) अज्ञान है (जाव) जबतक (कम्माण विप्पमुक्को ण) कर्मों से रहित नहीं होता है (ताव) तब तक (असिद्धत्व) असिद्धत्व रूप औदयिक भाव (हवेदि) होता है।
कोहादीणुदयादो जीवाणं होति चउकसाया हु । इदि सव्वुत्तरभावुप्पत्तिसरूवं वियाणाहि ॥ 19 ॥ क्रोधादीनामुदयात् जीवानां भवन्ति चतुष्कषाया हि ।
इति सर्वोत्तरभावोत्पत्तिस्वरूपं विजानीहि ॥ अन्वयार्थ - (कोहादीणुदयादो) क्रोधादि के उदय से (जीवाणं) जीवों के (हु) निश्चय से (चउकसाया) चार कषायें (होति) होती है। (इदि) इसी प्रकार (सव्वुत्तरभावुप्पत्तिसरूव) सभी उत्तर भावों की उत्पत्ति के स्वरूप को (वियाणाहि) जानना चाहिए।
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