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________________ 3 अज्ञान, 9क्षायिक भाव नहीं होते हैं शेष 38 भाव होते हैं। आचार्य महाराज ने गाथा 96 और 109 में मनःपर्यय ज्ञान में उपशम सम्यक्त्व को ग्रहण नहीं किया है किन्तु उपशम सम्यक्त्व में मनःपर्यय ज्ञान ग्रहण किया है इन दोनों कथनों में परस्पर विरोध आता है यहाँ महाराज का यह अभिप्राय समझ में आता है कि जो मनःपर्यय ज्ञान में उपशम सम्यक्त्व को ग्रहण नहीं किया गया है उससे प्रथमोपशम सम्यक्त्व समझना चाहिए क्योंकि मनःपर्यय ज्ञान एवं प्रथमोपशमसम्यक्त्व ये दोनों एक साथ होना संभव नहीं हैं। तथा जो उपशम सम्यक्त्व मेंमनःपर्यय ज्ञान का अभाव नहीं किया गया है अर्थात् सद्भावकहा गया है उससे द्वितीयोपशम सम्यक्त्वसमझना चाहिए, क्योंकि द्वितीयोपशम सम्यक्त्व के साथ मनःपर्ययज्ञान होने में आगम से विरोध नहीं आता है। उवसमभावणेदे वेदगभावा हवंति एदेसिं । अवणिय वेदगमुवसमजमखाइयभावसंजुत्ता।।110॥ उपशमभावोना एते वेदक भावा भवन्ति एतेषां । अपनीय वेदकं उपशमयमक्षायिकभावसंयुक्ताः ।। अन्वयार्थ - वेदक सम्यक्त्व में (उपसमभावंणेदे) उपशम भावों को छोड़कर(वेदगभावा) क्षयोपशम भाव (हवंति) होते हैं। तथा (खाइय सम्मत्ते) क्षायिक सम्यक्त्व में उपर्युक्त भाव में से (वेदगं अवणिय) वेदक सम्यक्त्व को छोड़कर उपसमजमखाइयभावसंजुत्ता) उपशम चारित्र, क्षायिक भावों को मिलाकर उपर्युक्त (एदेसिं) शेष भाव होते हैं। विशेष -गाथा 110 के अन्वयार्थ में जो "खाइयसम्मत्ते" क्षायिक सम्यक्त्व पद का ग्रहण किया गया है । वह गाथा 111 के प्रथम चरण से ग्रहण किया जानना चाहिए। खाइयसम्मत्तेदे भावा ससहम्मि ? केवलं णाणं । दंसण खाइयदाणादिया ण हवंति णियमेण ||111॥ . क्षायिक सम्यकत्वे एते भावाः संशिनि के वलं ज्ञानं । दर्शनं क्षायिक दानादिका न भवन्ति नियमेन ।। अन्वयार्थ - (ससहम्मि) संज्ञी जीवों में (णियमेण) नियम से (केवलं (133) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002685
Book TitleBhav Tribhangi
Original Sutra AuthorShrutmuni
AuthorVinod Jain, Anil Jain
PublisherGangwal Dharmik Trust Raipur
Publication Year2000
Total Pages158
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size6 MB
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