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________________ -- गुणस्थान भाव व्युच्छित्ति भाव. अभाव मिश्र 25 (उपर्युक्त 18 (उपर्युक्त 9- अवधि P4+अवधिदर्शन + 3 दर्शन) मिश्रज्ञान - कुज्ञान 3) असंयत 1 (असंयम) 28 (सम्यक्त्व 3, ज्ञान 35 (कुज्ञान 3, मिथ्यात्व, दर्शन 3, क्षायोपशमिक अभव्यत्व) लब्धि 5, असंयम, मनुष्यगति, कषाय 4, पुरुषवेद शुभ लेश्या 3, अज्ञान, असिद्धत्व जीवत्व और भव्यत्व) तण्णिव्वत्तिअपुण्णे असुहतिलेस्सेव उवसमं सम्मं । वेभंगं ण हि अयदे जहण्णकावोदलेस्सा हु ।।68।। तन्निर्वृत्यपूर्णे अशुभत्रिलेश्या एव, उपशमं सम्यक्त्वं । विभंगं न हि अयते जघन्यकापोतलेश्या हि ॥ अन्वयार्थ - (तण्णिव्वत्तिअपुण्णे) भोग भूमिज मनुष्यों के निर्वृत्यपर्याप्त अवस्था में (असुहतिलेस्सेव) तीन अशुभ लेश्याएँ ही होती हैं। (उवसमं सम्म) उपशम सम्यक्त्व (विभंगं) विभंगावधि ज्ञान (ण हि) नहीं होता है। (अयदे) तथा चतुर्थ गुणास्थान में (जहण्णकावोदलेस्सा हु) जघन्य कापोत लेश्या होती है। संदृष्टि नं. 25 भोगभूमिज मनुष्य निर्वृत्यपर्यासक (31) भोगभूमिज मनुष्य के निर्वृत्य पर्याप्त अवस्था में 31 भाव होते है। जो इस प्रकार है -क्षायिक सम्यक्त्व, कृतकृत्य वेदक, ज्ञान 3, कुज्ञान 2, दर्शन 3, क्षायोपशमिक लब्धि 5, असंयम, मनुष्यगति, कषाय 4, पुरुषवेद, अशुभ लेश्या 3, अज्ञान, असिद्धत्व, मिथ्यात्व, पारिणामिक भाव 3 । गुणस्थान मिथ्यात्व, सासादन, और असंयत ये तीन ही होते है। (70) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002685
Book TitleBhav Tribhangi
Original Sutra AuthorShrutmuni
AuthorVinod Jain, Anil Jain
PublisherGangwal Dharmik Trust Raipur
Publication Year2000
Total Pages158
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size6 MB
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