SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 126
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ - अभाव भाव " गुणस्थान भाव व्युच्छित्ति सूक्ष्म- 12( " 22 ( सापराय उपशांत 20 " 21 ( मोह " 19 (पूर्वोक्त 16 + क्रोध, मान, माया) | 20 (पूर्वोक्त 19 + लोभ, सराग संयम - उपशम चारित्र) 21 (पूर्वोक्त 20 + औपशमिक भाव 2 - क्षायिक चारित्र) क्षीण 13( " )/20 ( " ) मणपज्जे मणुवगदी पुंवेदसुहतिलेस्सकोहादी । अण्णाणमसिद्धत्तंणाणति दसणतिचदाणादी 195।। मनः पर्यये मनुष्यगतिः पुंवेदशुभत्रिलेश्याक्रोधादयः । अज्ञानमसिद्धत्वं ज्ञानत्रिकं दर्शनत्रिकं च दानादयः ।। वेदगखाइयसम्म उवसमखाइयसरागचारित्तं । जीवत्तं भव्वत्तं इदि एदे संति भावा हु ।।96।। वेदकक्षायिकसम्यक्त्वं उपशमक्षायिकसरागचारित्रं । जीवत्वं भव्यत्वमित्येते सन्ति भावा हि ॥ अन्वयार्थ :- (मणपज्जे) मनःपर्ययज्ञान में (मणुक्गदी) मनुष्यगति (पुंवेदसुहतिलेस्स कोहादी) पुरुषवेद, तीन शुभलेश्यायें, क्रोधादिचार कषाय (अण्णाणमसिद्धत्तं) अज्ञान, असिद्धत्व, (णाणति) ज्ञान तीनमतिज्ञान, श्रुतज्ञान और अवधिज्ञान (दसणति) चक्षुदर्शन, अचक्षुदर्शन और अवधि दर्शन (च) और (दाणादी) क्षायोपशिक दानादिक 5 लब्धि (वेदगखाइयसम्म) वेदक सम्यक्त्व, क्षायिक सम्यक्त्व (उपसम खाइयसराग चारित्त) उपशम चारित्र, क्षायिक चारित्र, सराग चारित्र (जीवत्तं) जीवत्व, (भव्वत्त) भव्यत्व (इदि) इस प्रकार (एदे) ये (भावा) भाव (हु) निश्चय से (संति) होते हैं। भावार्थ -मनःपर्यय ज्ञान में जो उपशमसम्यक्त्व का सद्भाव नहीं कहा गया है वह प्रथमोपशम सम्यक्त्व की अपेक्षा समझना चाहिए, क्योंकि (113) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002685
Book TitleBhav Tribhangi
Original Sutra AuthorShrutmuni
AuthorVinod Jain, Anil Jain
PublisherGangwal Dharmik Trust Raipur
Publication Year2000
Total Pages158
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size6 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy