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चारित्र, (खाइयसम्मत्तूणा) क्षायिक सम्यक्त्वको छोड़कर खाइयभावा) शेष क्षायिक भाव (णो संति) ये विवक्षित कषाय में नहीं रहते हैं। (एवं) इसी प्रकार (माणादितिए) मानादित्रिक में भी जानना चाहिए। (सुहुमसरागुत्ति) सूक्ष्म सराग गुणस्थान में (हि) निश्चय से (लोहो) लोभ कषाय रहती है। (हु) निश्चय से (अण्णाणतिए) अज्ञानत्रिक में (मिच्छाइट्ठिस्स) मिथ्यादृष्टि के समान(भावा) भाव (होति) होते हैं।
संदृष्टि नं.59
क्रोधमानमाया भाव (41) क्रोध, मान, माया इन तीनों कषायों में 41 भावों का सद्भाव जानना चाहिए। वे भाव इस प्रकार से हैं। औपशमिक सम्यक्त्व, क्षायिक सम्यक्त्व, क्षायोपशमिक 18 भाव, गति 4, लिंग 3, कषाय 4 में से कोई एक विवक्षित कषाय, लेश्या 6, मिथ्यादर्शन, असंयम, अज्ञान, असिद्धत्व, जीवत्व, भव्यत्व, अभव्यत्व, गुणस्थान प्रथम से नौ तक जानना चाहिए। संदृष्टि मूलग्रन्थ में 40 भावों की बनाई हुई है। यह व्यवस्था किसी प्रकार बनती हुई प्रतीत नहीं हो रही है। मूल ग्रन्थ संदृष्टि के साथ 41 भावों की भाव रचना संदृष्टि निम्न प्रकार से है । क्रोध मानमाया भाव (40) मूल ग्रन्थ संदृष्टि गुणस्थान भाव व्युच्छित्ति
भाव
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अभाव
9 (सवेद) 9 अवेद
(108)
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