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________________ ओरालं वा मिस्से ण हि वेभंगो सरागदेसजमं । मणपज्जवसमभावा साणे थीसंढ वेदछि दी |81| औदारिकवत् मिश्रे न हि विभंगं सरागदेशयमं । मनः पर्ययशमभावाः साने स्त्रीषंढ वेदच्छित्तिः ॥ अन्वयार्थ :- (मिश्र) औदारिक मिश्रकाययोग में (ओरालं वा ) औदारिक काययोग के समान भाव जानना चाहिए। विशेषता यह है कि (हि) निश्चय से (विभंगं) विभंगज्ञान (सरागदेशयमं) सरागसंयम और देश संयम (मणपज्जवसमभावा) मनः पर्ययज्ञान, औपशमिक सम्यकत्व और औपशमिक चारित्र, प्रथम गुणस्थान में नहीं पाया जाता है । (साणे) सासादन गुणस्थान में (थीसंठ वेदछि दी) स्त्रीवेद, नपुसंकवेद की व्युच्छि ति हो जाती है । भावार्थ - औदारिकमिश्र योग में देवगति, नरकगति, विभंगावधिज्ञान, सराग चारित्र, देशचारित्र, मन:पर्ययज्ञान, उपशम सम्यक्त्व और उपशमचारित्र ये आठ भाव नहीं होते हैं । अतः पैंतालीस भाव होते हैं । औदारिक मिश्रकाय योग में प्रथम, द्वितीय, चतुर्थ और तेरहवां ये चार गुणस्थान होते हैं । इसमें सासादन गुणस्थान में स्त्रीवेद और नपुसंकवेद की व्युच्छित्ति हो जाती है। अतः औदारिक मिश्र काययोग में चतुर्थ गुणस्थान में एक पुंवेद ही पाया जाता है । मिच्छाइट्ठिट्ठाणे सासणठाणे असंजदट्ठाणे । दुग चदु पणवीसं पुण सजोगठाणम्मि णवयछिदी ||82|| मिथ्यादृष्टि स्थाने सासादनस्थाने असंयतस्थाने । द्वौ चत्वारः पंचविंशतिः पुनः सयोगस्थाने नवकच्छित्तिः ॥ अन्वयार्थ :- (मिच्छा इट्ठि द्वाणे ) औदारिक मिश्र काययोग में मिथ्यात्व गुणस्थान में दो, (सासणठाणे) सासादन गुणस्थान में चार (असंजद ठाणे) असंयत सम्यग्दृष्टि गुणस्थान में (पणवीसं) पच्चीस की (पुण) पुनः (सजोगठाणम्मि) सयोग केवली गुणस्थान में (णवय छिदी) नौ भावों की व्युच्छित्ति होती है । Jain Education International (93) For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002685
Book TitleBhav Tribhangi
Original Sutra AuthorShrutmuni
AuthorVinod Jain, Anil Jain
PublisherGangwal Dharmik Trust Raipur
Publication Year2000
Total Pages158
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size6 MB
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