SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 134
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ (उपसमचरणं) उपशम चारित्र (खाइयभावा) क्षायिक भाव (णियमेण) नियम से (हंवति) होते हैं। भावार्थ -समस्त मोहनीय कर्म के उपशमया क्षयसे जो चारित्र होता है वहयथाख्यातचारित्र कहलाता है। यथाख्यात चारित्र में सरागसंयम और लोभ कषाय नहीं रहती है एवं उपशम चारित्र और क्षायिक भाव पाये जाते हैं। आचार्य महाराज ने 11 वें गुणस्थान में उपशम चारित्र तथा 12 वें गुणस्थान में क्षायिक चारित्र माना है। कारण यह है कि 11 वेंगुणस्थान के पूर्व सम्पूर्ण मोहनीय कर्म की प्रकृतियाँ उपशम संभव नहीं हैं तथा 12 वें गुणस्थान के पूर्व मोहनीय कर्म की सम्पूर्ण प्रकृतियाँ का क्षय किसी प्रकार संभव नहीं है। इसी अभिप्राय को ग्रहण कर 11 वें उपशम चारित्र, उसके पूर्व 6-10 तक सराग चारित्र और 12, 13 व 14 वें क्षायिक चारित्र स्वीकार किया गया है। संदृष्टि नं. 70 यथाख्यात संयम भाव (29) यथाख्यात संयम में 29 भाव होते हैं जो इस प्रकार हैं - औपशमिक भाव2, क्षायिक 9, ज्ञान 4, दर्शन 3, क्षयो. लब्धि 5, मनुष्य गति, शुक्ल लेश्या, अज्ञान, असिद्धत्व, जीवत्व, भव्यत्व। गुणस्थान उपशान्त मोह आदि चार होते हैं। संदृष्टि निम्न प्रकार है - गुणस्थान भाव व्युच्छित्ति भाव उप. 12 (सम्यक्त्व | 21 (गुणस्थानवत् दे. 18 (क्षायिक चारित्र, औप. चा.) संदृष्टि 1) क्षायिक लब्धिऽ, केवल ज्ञान, केवल दर्शन) क्षीण. 13 20 ( " ) 9(औपशमिक भाव 2, (गुणस्थानवत् क्षायिक लब्धि, दे. संदृष्टि 1) केवलज्ञान, केवल दर्शन) सयोग 15 (औपशमिक भाव 2, चार ज्ञान दर्शन 3, क्षयो. लब्धि 5, अज्ञान) अयोग ( " 13 ( " ) 16 (उपर्युक्त 15 + शुक्ल लेश्या = 16) (121) अभाव - Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002685
Book TitleBhav Tribhangi
Original Sutra AuthorShrutmuni
AuthorVinod Jain, Anil Jain
PublisherGangwal Dharmik Trust Raipur
Publication Year2000
Total Pages158
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size6 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy