Book Title: Amit Rekhaye
Author(s): Devendramuni
Publisher: Tarak Guru Jain Granthalay
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवेन्द्र मुनि अमिंट - रेखाएं Jain Education Internationa Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री तारक गुरु जैन ग्रन्थमाला का बावीसवां पुष्प अमिट रेखाएं लेखक राजस्थानकेसरी प्रसिद्धवक्ता परम श्रद्धेय पं० प्रवर श्री पुष्कर मुनिजी महाराज के सुशिष्य देवेन्द्र मुनि शास्त्री, 'साहित्यरत्न' प्रकाशक श्री तारक गुरु जैन ग्रन्थालय पदराड़ा, उदयपुर (राजस्थान) Jain Education Internationa Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुस्तक. अमिट रेखाए लेखक , देवेन्द्र मुनि शास्त्री 'साहित्यरत्न' प्रकाशक श्री तारक गुरु जैन ग्रन्थालय पदराड़ा जि० उदयपुर (राजस्थान) प्रथम संस्करण 8 अगस्त १९७३ मुद्रण @ संजय साहित्य संगम के लिए द्वारा. रामनारायन मेड़तवाल श्री विष्णु प्रिंटिंग, प्रेस राजामण्डी, आगरा-२ manoar Am PreraniuroMI मूल्य : दो रुपए मात्र Jain Education Internationa Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समर्पण जिन्होंने मुझे बाल्यकाल में अपनी प्यारी गोद में बिठाकर ऐतिहासिक और धार्मिक कहानियां सुनाईं, और मन में वैराग्य की भावना उद्बुद्ध की उन्हीं वात्सल्यमूर्ति मातेश्वरी महासती श्री प्रभावती जी म० के कर कमलों में -देवेन्द्र मुनि Jain Education Internationa Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jain Education Internationa Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लेखक की कलम से कहानी साहित्य संसार का सर्वश्रेष्ठ सरस साहित्य है । साहित्य की जितनी भी विधाएं हैं उसमें कथा साहित्य ही सब से अधिक मधुर है। युग के प्रारंभ से लेकर वर्तमान युग तक मानव कहानी के माध्यय से अपनी अनुभूति को अभिव्यक्त करता रहा है। वेद, उपनिषद, आगम और त्रिपिटक तथा पुराण और साहित्यिक ग्रन्थों में व लोकजीवन में हजारों लाखों कहानियां प्रचलित हैं जो इस सत्य तथ्य का ज्वलंत प्रमाण है कि मानव आदि काल से ही कहानी से कितना प्रेम करता रहा है और कितने चाव से सुनता रहा है। इसी बात का समर्थन पाश्चात्य विचारक रिचर्डबर्टन ने इस प्रकार किया है-कहानी संसार की सबसे पुरानी वस्तु है, इसलिए आश्चर्य नहीं कि इसका प्रारंभ उसी समय हुआ हो, जब मानव ने चलना सीखा था । ___कहानी साहित्य को विश्व के मर्धन्य-मनीषियों ने भाषा. परिभाषा के बंधन में आबद्ध करना चाहा है। विभिन्न विचारकों ने विभिन्न परिभाषाएं लिखी हैं।। ___अंगरेजी कथा साहित्य के आद्य-निर्माता 'एडगर एलर पो' का मन्तव्य है कि पाठकों की भावना तथा बुद्धि को Jain Education Internationa Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १० की स्पर्श करना लेखक के लिए आवश्यक है पर प्रवाह एकता का निर्वाह तो उसके लिए अनिवार्य रूप से आवश्यक है, वह घटनाओं का तारतम्य उपस्थित करे, वह चरित्र निर्माण का ऐसा आदर्श ग्रहण करे, जो अभिष्ट प्राप्ति में सहायक हों, पर उसमें भरती का एक शब्द भी नहीं होना चाहिए ।' जैक लण्डन का मत है— कहानी मूर्त सम्बद्ध, त्वरा गणमयी, सजीव और रुचि कर होनी चाहिए ।" जे० वी० ईसनबीन ने लिखा है 'प्रभाव की एकता, कथानक की श्रेष्ठता, घटना की प्रधानता पात्र और किसी एक समस्या का समाधान कहानी में ये पाँच गुण होने चाहिए ।" शैली की दृष्टि से कहानियों का विभाजन इस प्रकार हो सकता है । १ वर्णनात्मक २ कथोपकथन - प्रधान ३ आत्म-कथन-प्रधान ४ डायरी - प्रधान ५ पत्र - प्रधान प्रस्तुत पुस्तक में जो कहानियां है वे वर्णनात्मक और कथोपकथन की मिश्रित शैली में लिखी गई हैं । विषय की दृष्टि से आज तक जो कहानी साहित्य लिखा गया है उनका वर्गीकरण इस प्रकार किया जा सकता है Jain Education Internationa Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १ प्रेम कहानियां २ ऐतिहासिक-कहानियां ३ जासूसी-कहानियां ४ जीवन-हास्य पर प्रकाश डालनेवाली आश्चर्यकहानियां ५ व्यंग तथा हास्य कहानियां ६ आदर्श कहानियां ७ मनोवैज्ञानिक-कहानियां विषय की दृष्टि से प्रस्तुत पुस्तक में ऐतिहासिक, और आदर्श कहानियां जा रही हैं। ये कहानियाँ कुछ तो जून १९७३ में लिखी हैं और कुछ कहानियाँ १६६३ में। इस प्रकार कुछ नई और कुछ पुरानी कहानियों का इसमें सूमेल हो गया है। परम श्रद्धेय राजस्थान केसरी पूज्य गुरुदेव श्री पुष्कर मुनिजी म० की अपार कृपा दृष्टि से ही मैं प्रगति के पवित्र पथ पर बढ़ रहा हूँ, अतः किन शब्दों में उनका आभार व्यक्त करू यह मुझे सूझ नहीं रहा है। साथ ही 'सरस' जी के मधुर स्नेह को भी भूल नहीं, सकता, जिन्होंने पुस्तक को मुद्रण कला की दृष्टि से सुन्दर ही नहीं अति सुन्दर बनाई है। -देवेन्द्र मुनि शास्त्री स्थानकवासी जैन पंडाल लाखन कोटडी अजमेर १ अगस्त १९७३ Jain Education Internationa Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशाकीय अपने प्रेमी पाठकों के कर कमलों में अमिट रेखाएं पुस्तक थमाते हुए मन आनन्द के सागर में उछाले मार रहा हैं । प्रस्तुत पुस्तक के लेखक हैं राजस्थान केसरी प्रसिद्धवक्ता पूज्य गुरुदेव श्री पुष्कर मुनिजी म० के सुशिष्य देवेन्द्र मुनिजी शास्त्री। देवेन्द्र सूनि जी प्रतिभासम्पन्न लेखक हैं, उन्होंने विविध-विधाओं में चालीस से भी अधिक पुस्तके लिखी हैं, जिसका साहित्यिक संसार में अच्छा सम्मान हुआ है। प्रस्तुत पुस्तक में उनके द्वारा लिखी हई ऐतिहासिक व आदर्श कहानियां हैं। ये कहानियां मन को प्रेरणा देती हैं और चिन्तन को उबुद्ध करती हैं। भगवान महावीर की पच्चीस सौ वीं निर्वाण शताब्दी के उपलक्ष्य में लिखी हुई 'महावीर युग की प्रतिनिधि कहानियाँ' पुस्तक भी हम शीघ्र ही पाठकों को समर्पित करना चाहते हैं। साथ ही मुनि श्री का महावीर जीवन पर शोध-प्रबन्ध भी शीघ्र ही प्रकाशित कर रहे हैं। अन्त में हम उन सभी उदारमना दानी महानुभावों का हृदय से आभार मानते हैं जिन्होंने उदार अर्थ सहयोग देकर प्रकाशन शीघ्र करने के लिए हमें उत्प्रेरित किया है । भविष्य में भी उनसे अधिक सहयोग की अपेक्षा रखते हैं। -~-मंत्री श्री तारक गुरु जैन ग्रन्थालय Jain Education Internationa Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुक्रमणिका १ सच्चा कलाकार २ आचार्य स्थूलभद्र ३ महायज्ञ ४ खीझ और रीझ ५ भक्त रैदास ६ राजकुमार का चातुर्य ७ विजय का रहस्य ८ प्रतिभा की प्रतिभा ६ सन्देह से मुक्ति १० सुयोग्य पुत्र ११ अमर फल १२ समस्या का समाधान १३ अनमोल जीवन : कौडी का मोल १४ क्या मानव गरीब है ? १ ५ x १६ २१ २३ २६ ३५ ४० ४४ ४८ ५४ ५६ ६६ ६८ Jain Education Internationa Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४ १५ आदर्श भावना १६ आनन्द कहाँ ? १७ कलाकार की आलोचना १८ बादशाह की रामायण १६ परीक्षा २० कलियुग का बोध २१ पृथक्-पृथक् सजा २२ कला का देवता २३ पावन-व्रत २४ मूल् का सूचीपत्र २५ परिवाट और सम्राट २६ क्षमामूर्ति २७ करुणा मूर्ति २८ शिष्यों की परीक्षा १०२ १०७ १०६ ११४ ११६ १२२ Jain Education Internationa Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अमिट रेखाएं Jain Education Internationa Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jain Education Internationa Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ '' सच्चा कलाकार राजा नन्द अपने रथिक के कमनीय कला कौशल को निहार कर मुग्ध हो गया ! उसने कहा रथिक । जो चाहे वह मांग सकते हो । रथिक कोशा के मनोहारी रूप पर पागल था, उसे ज्ञान था कि कोशा राजमान्य है वह बिना राजा की आज्ञा के किसी को आँख उठाकर भी नहीं देखती है । रथिक ने नन्द से निवेदन किया कि मैं एक बार कोशा से मिलना चाहता हूँ | राजा नन्द ने उसकी बात सहर्ष स्वीकार कर ली । राजा ने कोशा के पास सन्देश भिजवा दिया । रथिक सजधज कर कोशा के आवास पर पहुँचा ! कोशा के सामने जटिल समस्या थी । वह स्वयं पवित्र जीवन जीना चाहती थी और इधर राजाज्ञा थी । कोशा ने रथिक के सामने आचार्य स्थूलभद्र के कठोर ब्रह्मचर्य व्रत की मुक्तकंठ से प्रशंसा की । रथिक को वह बात पसन्द नहीं आई । उसने कहा चलो, प्रमदवन में वहाँ क्रीड़ा करेंगे। प्रमदवन (गृहोद्यान) में सघन हरियाली Jain Education Internationa Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अमिट रेखाएं थी ! फूलों की मधुर मधुर गंध मादकता पैदा कर रही थी। दोनों प्रमदवन में पहुँचे। आम्रवृक्ष के नीचे आराम कुर्सी पर बैठ गये । कोशा को अपनी ओर आकर्षित करने के लिए उसने अपनी कला का प्रदर्शन किया। उसने आम्र फल पर एक बाण छोड़ा। बाण फल पर जा लगा। उस बाण को दूसरे बाण से, दूसरे बाण को तीसरे बाण से, तीसरे बाण को चौथे बाण से, इस प्रकार इतने बाण बींध दिये कि अन्तिम बाण का अन्तिम छोर रथिक के हाथ में था। रथिक ने हलका-सा झटका देकर आम्र फल को शाखा से तोड़ दिया । रथिक ने कुशलता से एकएक बाण को निकाला, आम्र फल हाथ में आगया । उसने अत्यन्त स्नेह से आम का फल कोशा को समर्पित किया। वह विचारने लगा, मेरे कला कौशल से और स्नेह की अधिकता से कोशा पिघल जायेगी और अपने आपको समर्पित कर देगी, किन्तु उसकी इच्छा सफल न हो सकी । कोशा कला की प्रतिमूर्ति थी। उसने मुस्कराते हुए कहा-रथिक ! अब जरा मेरा भी कौशल देखलें। उसने उसी समय दासियों को आदेश देकर सरसों का ढेर करवाया। उस पर उसने सूई रखवाई। सूई की तीक्ष्ण नोक पर फल-पते सजाये, और उस पर नृत्य प्रारम्भ किया। नृत्य लम्बे समय तक चलता रहा, पर महान् आश्चर्य, न तो सूई उनके पैरों को बींध पाई और न सरसों के दाने ही अस्त-व्यस्त हुए। Jain Education Internationa Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सच्चा कलाकार ३ रथिक की आँखें इस अद्भुत कौशल को देखकर चुंधिया गई । मेरी कला इस महान् कला के सामने पराजित है । मैं इस पर सब कुछ न्योच्छावर करता हूँ । कोशा ने कहा- रथिक ! तुम जिस कला को दुष्कर कह रहे हो और उस पर इतने अनुरक्त हो, वह तो कुछ भी नहीं है ! कठिन कला तो मुनि स्थूलभद्र की थी । रथिक ने जिज्ञासा प्रस्तुत की आप जिस स्थूलभद्र की इतनी अत्यधिक प्रशंसा कर रही हैं, वे कौन हैं और उन्होंने ऐसा कौन-सा कार्य किया ? कोशा ने गौरव के साथ कहा- क्या आपको पता नहीं ? वे राजा नन्द के महामात्य शकडाल के पुत्र थे । वे मेरे पास बारह वर्ष तक रहे हैं । उनके साथ जीवन के वे मधुर क्षण बिताये हैं, किन्तु पिता के मरण से वे प्रबुद्ध हुए और जैनाचार्य संभूति विजय के पास उन्होंने आर्हती दीक्षा ग्रहण कर ली । दीक्षा लेने के पश्चात् भी वे यहां पर वर्षावास के लिए आये थे । एकान्त - शान्त वातावरण, वर्षाऋतु का सुहावना समय, बढिया रस से छलछलाता हुआ भोजन, सुन्दर चित्रशाला, मेरा प्रेम भरा नम्र निवेदन । इतना सब कुछ होने के बावजूद वे अपनी साधना से किञ्चित मात्र भी विचलित नहीं हुए । उनका ब्रह्मचर्य पूर्ण रूप से अखण्ड रहा । कोशा ने अपनी बात का स्पष्टीकरण करते हुए कहा - दूध को देखकर बिल्ली अपने मन को अधिकार में Jain Education Internationa Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अमिट रेखाए नहीं रख सकती है, उसका मन उसे पाने के लिए मचल उठता है, वैसे ही रूपवान स्त्री को प्राप्त कर बड़े-बड़े साधक भी विचलित हो जाते हैं. परन्तु स्थूलभद्र काजल की कोठरी में रहकर भी बेदाग रहे, क्या यह महान् कला नहीं है ? ܡ रथिक के विचार शान्त हो गए थे। उसने कहा- मैं उस घोर तपस्वी का शिष्य बनना चाहता हूं, मैं भी उस महामार्ग पर चलना चाहता हूँ । कोशा ने कहा -- जिस दिन मुनि वर्षावास पूर्ण कर यहां से प्रस्थित हुए उसी दिन मैंने भी यह प्रतिज्ञा ग्रहण की थी कि राजा के द्वारा प्रेषित पुरुष के अतिरिक्त किसी के साथ क्रीड़ा न करूंगी, पर अब मेरा मन सर्वथा शान्त है । मेरी यही हार्दिक कामना है कि अब पूर्ण पवित्र जीवन जीऊं । रथिक ने अपना शिर कोशा के चरणों में झुका दियातू मेरी गुरु है । तू अपना जीवन पवित्र रूप से बिता । मैं भी स्थूलभद्र के चरणों में रहकर अपना जीवन पवित्र बनाऊंगा, सच्चा कलाकार बनूंगा । Jain Education Internationa Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २ आचार्य स्थूलभद्र भगवान महावीर के निर्वाण के लगभग एक सौ आठ वर्ष के पश्चात् बारह वर्ष का भयंकर दुष्काल गिरने से श्रमण संघ छिन्न-भिन्न हो गया । अनेक बहुश्रुत श्रमण प्राक आहार- पानी के अभाव में अनशन कर स्वर्गस्थ हुए। संघ की स्थिति दयनीय हो गई । आचार्य भद्रबाहु कुछ अपने शिष्यों को लेकर महाप्राण ध्यान की साधना करने के लिए नेपाल पहुंच गए। कितने ही श्रमण दक्षिणांचल में समुद्र के समीपवर्ती प्रदेश में चले गए। भूखे पेट आगमों का पुनरावर्तन न होने से वे विस्मृत होने लगे । दुर्भिक्ष मिटने पर संघ पटना में एकत्र हुआ, उन्होंने ग्यारह अंग संकलित किये । पर दृष्टिवाद के ज्ञाता आचार्य भद्रबाहु नहीं पधारे थे । उनके अतिरिक्त उसे कोई भी श्रमण जानता नहीं था; अतः संघ ने दो साधुओं को आचार्य भद्रबाहु के उपपात में भेजकर निवेदन करवाया कि वे अतिशीघ्र ही पाटलिपुत्र आकर संघ को दृष्टिवाद की वाचना प्रदान करें । Jain Education Internationa Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अमिट रेखाए आचार्य भद्रबाह ने संघ के निवेदन को अस्वीकार करते हुए स्पष्ट शब्दों में कहा----मैं इस समय महाप्राण ध्यान की साधना कर रहा हूँ। यह साधना बारह वर्ष में पूर्ण होगी । मैं इस साधना को बीच में नहीं छोड़ सकता। संघ मेरे इस कार्य में साधक हो, पर बाधक न बने। दोनों श्रमणों ने आकर सघ को आचार्य भद्रबाहु के निर्णय से अवगत कराया। उसी समय संघ ने एकत्र होकर गम्भीर अनुचिन्तन के पश्चात् निर्णय लिया कि दुबारा दो साधुओं को फिर से भेजा जाय और उनसे कहा जाय कि जो आचार्य संघ के आदेश की अवहेलना करता है उसे क्या दण्ड दिया जाय । आचार्य भद्रबाहु यही कहेंगे कि उसे संघ से बहिष्कृत कर दिया जाय । तब उच्च स्वर से यही कहा जाय कि क्या भगवन् ! आप भी उसी दण्ड के भागी नहीं है। संभव है, इससे हमारी समस्या का समाधान हो जाएगा। दोनों श्रमणों ने जाकर आचार्य को वही कहा। आचार्य असमंजस में पड़ गये। कुछ क्षणों के चिन्तन के पश्चात् आचार्य ने समस्या का समाधान करते हुए कहा-संघ महान है। वह मेरे पर अनुग्रह करे। मेधावी शिष्यों को मेरे पास भेजें । मैं उन्हें प्रतिदिन सात वाचनाएं दूंगा। प्रथम वाचना भिक्षाचर्या के पश्चात्, तीन वाचनाएं तीन काल वेला में और तीन वाचनाएं सायंकालीन प्रतिक्रमण के पश्चात् इस प्रकार संघ का कार्य भी सम्पन्न होगा और मेरी साधना में भी बाधा उपस्थित न होगी। Jain Education Internationa Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य स्थूलभद्र ___ दोनों साधुओं ने आकर आचार्य का मध्यम मार्ग संघ के समक्ष में रखा । संघ को प्रसन्नता हुई। संघ ने मुनि स्थूलभद्र आदि पांच सौ अध्ययन करने वाले मुनियों को और साथ ही एक विद्यार्थी मुनि की दो-दो सेवा करने वाले मुनियों को, इस प्रकार पन्द्रह सौ मुनियों को प्रस्थित किया। वे कुछ समय के पश्चात् आचार्य भद्रबाहु के सानिध्य में पहुंचे । आचार्य ने वाचना देने के पूर्व बताया कि यहां पर कोई भी परस्पर एकान्त-शान्त स्थान पर बैठकर पुनः चिन्तन करे, किन्तु संभाषण न करें । आचार्य भद्रबाहु ने वाचना प्रारम्भ की। सभी साधु मनोयोग से अध्ययन में लग गये । महाप्राण ध्यान की साधना से अध्ययन में समय की कमी रहती थी, साथ ही परस्पर वार्तालाप का निषेध होने से अध्ययनशील मुनियों का मन न लगा। कुछ समय के पश्चात् वे अध्ययन छोड़कर पुनः पाटलिपुत्र आ गये। एक मुनि स्थूलभद्र जमे रहे । वे स्थिर बुद्धि और प्रतिभा सम्पन्न थे । आठ वर्ष तक निरन्तर अध्ययन चलता रहा और आठ पूर्वो का अध्ययन भी सम्पन्न हो गया। आचार्यभद्रबाहु ने स्थूलभद्र की परीक्षा के लिए प्रश्न किया-क्या तुम्हारा मन तो अध्ययन से नहीं उचटा है न ? स्थूलभद्र ने नम्र निवेदन करते हुए कहा -भगवन् ! मन तो नहीं उचटा है, पर समय बहुत कम मिलने से वह भरा भी नहीं हैं। भद्रबाहु ने स्नेह की वर्षा करते हुए कहा-वत्स ! Jain Education Internationa Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अमिट रेखाएं महाप्राण को साधना अब शीघ्र ही पूर्ण हो रही है. उसके पश्चात् मैं तुम्हें पूरा समय दूंगा। _स्थूलभद्र ने पुनः जिज्ञासा प्रस्तुत की, भगवन् ! कितना अध्ययन कर चका हूँ और कितना अवशेष है ? ___ आचार्य भद्रबाहु ने स्मित मुस्कान के साथ उत्तर दिया -- अभी तक तुमने बिन्दु ग्रहण किया है और सिन्धु . अवशिष्ट है। स्थूलभद्र पहले से अधिक उत्साह के साथ अध्ययन में जुट गये । जब कुछ दिनों के पश्चात् भद्रबाहु के महाप्राण ध्यान की साधना सम्पन्न हुई तब तक स्थूलभद्र दो वस्तु कम दस पूर्वो का अध्ययन पूर्ण कर चुके थे। __ महाप्राण ध्यान की साधना सम्पन्न होने पर आचार्य भद्रबाहु विहार कर पाटलिपुत्र पधारे और नगर के बाहर उद्यान में ठहरे । मुनि स्थूलभद्र पास के लघु देवकुल में ध्यान कर रहे थे । यक्षा, यक्षदत्ता आदि सातों बहनें जो साध्वियां बन चुकी थीं वे भाई के दर्शन के लिए आई। वे आचार्य भद्रबाह के आदेश से लघु देवकुल में गई । बहनों को आती हुई दूर से देखकर स्थूलभद्र को ज्ञान का अभिमान आगया और चमत्कार दिखाने के लिए सिंह का रूप बनाया । सातों ही बहने वहां आई, पर भाई के स्थान पर सिंह को देखकर डर गई। उन्हें मन में शंका हुई कि कहीं भाई को सिंह खा तो नहीं गया। वे उलटे पैरों आचार्य के पास आई, और आचार्य से सम्पूर्ण वार्ता निवेदन की। आचार्य ने उपयोग लगा कर कहा-वह सिंह नहीं, तुम्हारा ही भाई है, अब जाओ और दर्शन करो। Jain Education Internationa Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य स्थूलभद्र सातों बहनें भाई के पास पहुंची, वन्दना कर अपनी तथा अपने भाई श्रियक और अपनी दीक्षा की बात बताती हुई बड़ी बहिन साध्वी यक्षा ने कहा-आपके दीक्षा लेने के कुछ समय के पश्चात् हमारे मन में भी संसार से विरक्ति हुई । जब हम सातों बहनें दीक्षा के लिए तैयार हुई तो भाई श्रीयक ने भी कहा-मैं भी तुम्हारे साथ ही दीक्षा लूगा। उसने प्रधानमंत्री पद को छोड़कर दीक्षा की तैयारी की । हम आठों ने एक साथ दीक्षा ग्रहण की। भाई श्रीयक अत्यन्त सुकुमार था। नवकारसी करना भी उसके लिए बहुत ही कठिन था । पर्युषण का पुनीत पर्व आया। मेरी प्रबल प्रेरणा से उसने पौरसी का प्रत्याख्यान किया, पौरसी सानन्द सम्पन्न हुई । मैंने पर्व की महत्ता बताते हुए दो पौरसी का आग्रह किया और इतना समय तो धार्मिक आराधना करते बीत जायेगा, भाई भूख से आकुल-व्याकुल था तथापि उसने मेरी बात की अवहेलना नहीं की उसने मेरी बात सहर्ष स्वीकार कर ली । इस प्रकार संध्या का समय निकट आ गया। मैंने भाई से फिर कहा-अब तो रात्रि का समय ही अवशिष्ट है, वह तो आनन्द से सोते-सोते ही बीत जायगा। ___ अनुज मुनि सुकोमल तो थे ही, पर अन्तमुखी वृत्ति वाले थे। क्षधा-वेदना की परवाह किये बिना ही उन्होंने उपवास का प्रत्याख्यान कर लिया। रात्रि धीरे-धीरे व्यतीत हो रही थी और भूख भी अपना उग्र रूप धारण कर रही थी। एक ओर समता थी और दूसरी ओर क्षुधा थी। पर अनुज श्रीयक अध्यात्म-साधना में लीन हो गये। Jain Education Internationa Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अमिट रेखाएं किन्तु क्षुधा की अत्यधिकता से शरीर ने उनको साथ नहीं दिया और वे रात्रि में ही स्वर्गस्थ हो गये। भाई के स्वर्गवास से मेरे मन में विचार उभरा कि भाई की मत्यु का कारण मैं हूँ। मैंने यह हत्या की है। मेरा मानसिक सन्ताप प्रतिक्षण बढ़ने लगा। मैंने श्रमण संघ से नम्र निवेदन किया कि प्रायचिश्त देकर मुझे शुद्ध करें। श्रमण संघ ने कहा-तुमने विशद्ध-भावना से उपवास की प्रेरणा दी थी, अतः प्रायश्चित का प्रश्न ही खड़ा नहीं होता। संघ के प्रस्तुत निर्णय से मुझे सन्तोष नहीं हुआ। मैंने पुनः अनुनय किया यदि यह बात भगवान श्रीमन्धर स्वामी से सुन लूं तो मैं आश्वस्त हो सकती हूँ।' ____संघ ने मेरे लिए कायोत्सर्ग किया, जिससे आकृष्ट होकर शासनदेवी उपस्थित हई। उसने संघ को स्मरण करने का कारण पूछा। संघ ने मेरी ओर संकेत करते हुए कहा--इस साध्वी को श्रीमन्धर स्वामी के पास ले जाकर आश्वस्त करें। शासनदेवी ने कहा-गमन और आगमन निविधता से सम्पन्न हो एतदर्थ संघ तब तक कायोत्सर्ग मुद्रा में रहे। शासन देवी मुझे श्रीमन्धर स्वामी के समवसरण में ले गई। मैंने भगवान को जाकर वन्दना की ओर पर्युपासना करने लगी। श्रीमन्धर स्वामी ने मुझे लक्ष्य कर कहा-भरत क्षेत्र से आने वाली साध्वी निर्दोष है। Jain Education Internationa Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य स्थूलभद्र भगवान के मुखारविन्द से अपने सम्बन्ध में निर्णय सुनकर मुझे बहुत ही प्रसन्नता हुई । मेरा संशय नष्ट हो गया। शासनदेवी पुनः मुझे यहाँ ले आई। संघ को मैंने समस्त घटना सुनाई। मैंने उस समय भगवान का जो उपदेश सुना था, वह एक बार के सुनने से मैंने उसे स्मरण रखा था, वह भावना, वियुक्ति, रतिकल्प और विचित्र-चर्या ये चार चूलिकायें भी संघ को अर्पित की, संघ ने दो चूलिकायें आचारांग के प्रथम दो अध्ययनों के रूप में नियुक्त की और दो दशवकालिक के अन्त में नियोजित की। साध्वी यक्षा आदि ने मुनि स्थूलभद्र को सारी बात बतायी और वहां से लौट गई। मुनि स्थूलभद्र मुनि भी ध्यान से निवृत्त होकर आचार्य भद्रबाहु के पास पहुँचे। वाचना देने की प्रार्थना की, पर आचार्य ने स्पष्ट इन्कार करते हुये कहा-तू इसके लिए सर्वथा अयोग्य है। मुनि स्थूलभद्र ने यह सुना तो उन्हें बहुत ही दुःख हुआ। उन्होंने अत्यन्त अनुनय-विनय के साथ पूछाभगवन् ! आप इतने समय तक मुझे बड़ी वत्सलता के साथ वाचना प्रदान कर रहे थे, आज सहसा यह अकृपा कैसे हो गई? आचार्य भद्रबाहु ने कहा-तू पात्र नहीं है और अपात्र को दिया हुआ ज्ञान कभी फलवान नही होता । ___ मुनि स्थूलभद्र अपने जीवन का अवलोकन करने लगे, पर कोई भी स्खलना उन्हें स्मरण नहीं आई । Jain Education Internationa Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२ अमिट रेखाए उन्होंने पुनः निवेदन किया, भगवन् ! मुझे अपनी स्खलना स्मरण नहीं आ रही है, कृपया आप ही बतायें । सात्विक रोष प्रकट करते हुये आचार्य भद्रबाहु ने कहा - "पाप करके भी उसका स्मरण नहीं हो रहा है उसी क्षण मुनि स्थूलभद्र को अपना सिंह का रूप स्मरण हो आया । वे आचार्य देव के चरणों में गिर पड़े - भगवन् ! क्षमा प्रार्थी हूं, मेरे से अविनय हुआ है । भविष्य में कभी भी ऐसा न होगा । भद्रबाहु ने कड़क कर कहा ज्ञान और साधना का किञ्चितमात्र भी अभिमान क्षम्य नहीं होता । जितना ज्ञान तुझे मिलना था मिल गया, अब नया ज्ञान नहीं मिल सकता । मुनि स्थूलभद्र ने बहुत ही अनुनय-विनय किया, पर आचार्य प्रसन्न न हुए । उन्होंने संघ से प्रार्थना की । संघ एकत्र हुआ । आचार्य भद्रबाहु ने संघ से कहा- जो भूल मुनि स्थूलभद्र ने की है वैसी भूल भविष्य के साधु मन्द बुद्धि और आडम्बर प्रिय होने से करते रहेंगे, अतः शेष पूर्वो का ज्ञान मेरे तक ही सीमित रहे, जो मुनि स्थूलभद्र को दण्ड दिया जा रहा है । वह भविष्य के साधुओं की शिक्षा की दृष्टि से भी है । संघ ने पुनः आग्रह किया कि भगवन् ! आपको अनुग्रह करना चाहिए क्योंकि सभी मुनियों में एक स्थूलभद्र ही ऐसे मुनि हैं जो ज्ञान को ग्रहण करने में समर्थ हैं यदि आप इन्हें आगमो का ज्ञान नहीं देंगे तो वह Jain Education Internationa Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य स्थूलभद्र विच्छिन्न हो जायेगा। केवलज्ञान तो पूर्व ही नष्ट हो गया है और पूर्वो का ज्ञान भी न रहा तो धर्म संघ किस प्रकार चल सकेगा । जैन-संघ के भविष्य को सोचकर ही आपको निर्णय करना है। भद्रबाहु ध्यान मग्न हुए, कुछ क्षणों के पश्चात् उन्होंने कहा-मैं एक शर्त पर अगले पूर्वो की वाचना दे सकता हैं, वह यह कि स्थूलभद्र इन पूर्वो की वाचना अन्य किसी साधु को नहीं दे सकेगा, यदि यह अभिग्रह स्वीकार्य है तो वाचना प्राप्त हो सकती है। ___मुनि स्थूलभद्र ने आचार्य श्री की शर्त को सहर्ष स्वीकार किया ! आचार्य भद्रबाह ने पुन. वाचना देनी प्रारम्भ की ! कुछ ही समय में मुनि स्थूलभद्र चौदह पूर्वो का समग्र ज्ञान प्राप्त कर गीतार्थ हो गए। आचार्य भद्रबाहु ने मुनि स्थूलभद्र को अपना उत्तराधिकारी नियुक्त किया और वे स्वर्गस्थ हुए। __ आचार्य स्थूलभद्र विचरते हुए एक बार श्रावस्ती के वाहर उद्यान में पधारे। हजारों नागरिक आचार्य के प्रवचन को सुनने के लिए उपस्थित हुए। आचार्य स्थूलभद्र का एक गृहस्थाश्रम का मित्र धनदेव वहां रहता था। आचार्य ने देखा मेरा प्रिय मित्र धनदेव क्यों नहीं आया है। संभव है, वह बीमार हो या कहीं बाहर गया हुआ हो, अतः आचार्य स्थूलभद्र स्वयं उसके घर पर पधारे । धनदेव की पत्नी धनेश्वरी ने आचार्य प्रवर का स्वागत किया। धनेश्वरी देवी से आचार्य प्रवर ने पूछा-धनदेव कहां है ? वह दिखलाई नहीं दिया ? Jain Education Internationa Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अमिट रेखाएं धनदेव का नाम सुनते ही धनेश्वरी की आँखें आंसुओं से छलछला आईं। भगवन् ! घर में जितना भी धन था वह खर्च हो गया। कहते हैं कि पूर्वजों ने घर में बहुत सारा धन गाड़ रखा है, पर स्थान का पता न होने से वह हमें मिल न सका धनहीन व्यक्ति का कहीं भी आदर नहीं होता, वे अन्त में धन कमाने के लिए विदेश गये। आचार्य स्थूलभद्र ने अपने निर्मल ज्ञान से जान लिया कि घर में कहां पर धन गड़ा हुआ है। आचार्य जी जहां खड़े थे सामने ही एक स्तम्भ था, जिसके नीचे विराट् वैभव गड़ा हआ था। धर्मोपदेश के व्याज से आचार्य स्थूलभद्र ने स्तम्भ की ओर हाथ का संकेत करते हुए कहा-भद्र ! संसार के स्वरूप को तो देखो, घर में धन गड़ा पड़ा है और तेरा पति विदेश में घूम रहा है ! धनेश्वरी समझ गई कि धन कहां पर गड़ा हुआ है। आचार्य कुछ दिनों तक श्रावस्ती में रुके फिर अन्य प्रदेश की ओर प्रस्थान कर दिया। कुछ समय के पश्चात् धनदेव विदेश से घर लौटा । धनेश्वरी ने प्रेम से उसका स्वागत किया, और कहाआपके विदेश जाने के पश्चात् आपके परम मित्र जैनाचार्य स्थूलभद्र यहां पर पधारे थे। उन्होंने इस कुटिया को भी पवित्र किया। धर्म देशना प्रदान करते समय उन्होंने इस स्तम्भ की ओर संकेत किया था। धनदेव चिन्तन करने लगा-महान् आचार्य की कोई भी प्रवृत्ति निष्प्रयोजन नहीं हुआ करती। अवश्य ही इस Jain Education Internationa Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य स्थूलभद्र स्तम्भ के नीचे धन गड़ा हुआ होना चाहिए । शुभ मूहूर्त में धनदेव ने भूमि का उत्खनन किया : प्रभूत धन का भण्डार प्राप्त हुआ। आचार्य स्थूलभद्र की असीम कृपा से धनदेव धन्य हो गया। वह अपने पूरे परिवार के साथ आचार्य देव के दर्शन के लिए पाटलिपुत्र आया, और आचार्य से निवेदन किया-भगवन् ! आपकी अपार कृपा से मैंने दरिद्रता के समुद्र को पार किया है। कृपया बताइए कि आपके इस ऋण से मुक्त होने के लिए मुझे क्या करना चाहिए। आचार्य स्थूलभद्र ने कहा-आपको अर्हत् धर्म स्वीकार करना चाहिए। धनदेव ! भगवन्-आपका जो भी आदेश होगा, वह मुझे स्वीकार है। ___आचार्य ने उसी समय उसे सम्यक्त्व दीक्षा प्रदान की । वह जैन धर्म की आराधना व साधना करने लगा। आर्य स्थूलभद्र तीस वर्ष तक गृहस्थाश्रम में रहे। चौबीस वर्ष साधु पर्याय में और पैंतालीस वर्ष तक युगप्रधान आचार्य पद पर रहे। वीर निर्वाण सं० दो सौ पन्द्रह (२१५) में उनका स्वर्गवास हुआ। वे अन्तिम श्रु त केवली थे। Jain Education Internationa Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ m महायज्ञ कुरुक्ष ेत्र का युद्ध समाप्त हो गया । युधिष्ठिर हस्तिनापुर की राजगद्दी पर आसीन हुए । अश्वमेध महायज्ञ का आयोजन किया गया । जिसमें भारत के बड़े-बड़े राजा एकत्रित हुए | यज्ञ का कार्य सानन्द सम्पन्न हुआ । सर्वत्र यह उद्घोषणा करवाई गई कि जिसे जो भी चाहिए उसे महाराजा युधिष्ठिर उदारता के साथ प्रदान करेंगे । हजारों व्यक्ति दान लेने के लिए उपस्थित हुए । यज्ञ का अन्तिम दिन था । एक विचित्र नेवला यज्ञशाला में आया । उसका आधा शरीर सुनहरा था और आधा साधारण नेवले का था, उसने वहां उपस्थित राजा, महाराजा, और विद्वान ब्राह्मणों को संबोधित कर मानव की भाषा में कहा आप यह सोचकर मन में प्रसन्न हो रहें होंगे कि हमने महान् यज्ञ किया है, पर यह आपका भ्रम है । इससे भी पूर्व इस कुरुक्षेत्र में एक महान यज्ञ हो चुका है । एक गरीब ब्राह्मण ने एक सेर आटा अतिथि को दान में दिया Jain Education Internationa Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महान्यज्ञ था, किन्तु आपके द्वारा अपार सम्पत्ति दान में दी गई, पर वह उसके बराबर नहीं हो सकती । ___ याचक ब्राह्मणों ने उस नेवले से कहा-तुम कौन हो, और यहां पर किस प्रकार आ गए और क्यों इस अश्वमेध यज्ञ की बुराई कर रहे हो ? यह वेद-विधि से किया गया है । जो भी इस यज्ञ में आये हैं, उनका उचित सत्कार किया गया है, दान दिया गया है। सभी उससे सन्तुष्ट हैं। यह सुनते ही नेवला कहकहा लगाकर हँसने लगा, उसने कहा-मेरा किसी से कुछ भी विरोध नहीं है । तथापि मैं जो कुछ कह रहा हूँ वह पूर्ण सत्य है । महाभारत युद्ध के पूर्व यहाँ एक ब्राह्मण परिवार रहता था, जो खेत में बिखरे हुए अनाज के दानों को चुन-चुन कर इकट्ठा करके अपनी आजीविका चलाता था। उन्होंने यह प्रतिज्ञा ग्रहण कर रखी थी, जो कुछ भी अनाज इकट्ठा हो, उसको बराबर बाँटकर तृतीय प्रहर के प्रारम्भ होने से कुछ समय के पूर्व ही खा लिया करें। किसी दिन नियत समय के पूर्व अनाज प्राप्त नहीं होता तो वे उपवास कर लिया करते थे और अनाज मिलने पर नियत समय पर खा लेते थे। एक समय भयंकर अकाल पड़ा । अन्न पानी के अभाव में लोग छटपटाने लगे। जब अन्न ही पैदा न हुआ तो, फसल काटने का प्रश्न ही न था और जब फसल न कटती तो अन्न के दाने खेतों में किस प्रकार बिखरते; अतः उस ब्राह्मण परिवार को अनेक दिनों तक भूखा रहना पड़ा। Jain Education Internationa Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८ अमिट रेखाएं एक दिन ब्राह्मण, ब्राह्मणी उसका पुत्र और पुत्रवधू ये चारों भूखे और प्यासे धूप में परिश्रम से एक सेर ज्वार के दाने इकट्ठे कर सके । उसका आटा पीसा गया । उसे चार भागों में बांटकर वे खाने के लिए बैठने लगे, उसी समय कोई भूखा ब्राह्मण आ गया। ब्राह्मण ने उठकर अतिथि का स्वागत किया। अतिथि को देखकर वे फूले नहीं समाये । उन्होंने ने अतिथि से कहा-विप्रवर ! मैं गरीब हूं। यह आटा मैंने नियम व परिश्रम से कमाया है, कृपया आप इसका भोजन कर मुझे अनुगृहीत करें। ब्राह्मण ने अपना आटा अतिथि के सामने रख दिया। वह आटा उसने खा लिया। फिर भूखी नजर से ब्राह्मण की ओर देखा। अतिथि सन्तुष्ट नहीं हुआ है; अतः ब्राह्मण देव चिन्तित हो उठे। उसकी पत्नी ने पति को चिन्तित देखकर कहानाथ ! मेरे हिस्से का भी आटा ब्राह्मण देव को खिला दीजिए, यदि ब्राह्मण को उससे भी संतोष हो गया तो मैं भी संतुष्ट हो जाऊंगी। ब्राह्मण ने कहा-तुम्हारा कथन ठीक नहीं है, पति का कर्तव्य है कि पत्नी का भरण-पोषण करे। तुम्हारी भूख से हड़ियां निकल गई है, मांस और रक्त का काम नहीं है, ऐसी स्थिति में तुम्हें भूखी रखकर अतिथि का सत्कार करूँ, यह मेरे लिए उचित नहीं है। ब्राह्मणी ने कहा-नाथ ! मैं आपकी सहधर्मिणी हूँ। आपने स्वयं भूखे रहकर अपने हिस्से का आटा अतिथि को Jain Education Internationa Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महान्यज्ञ १६ दिया है, वैसे ही मेरा हिस्सा भी खिला दीजिए। मेरी प्रार्थना को अमान्य न करें। पत्नी के अत्यधिक आग्रह करने पर ब्राह्मण ने उसके हिस्से का भी आटा ब्राह्मण को खिला दिया, तो भी अतिथि की भूख नहीं मिटी । ब्राह्मण पहले से भी अधिक उदास हो गया। उसी समय ब्राह्मण-पुत्र ने कहा-मेरे हिस्से का यह आटा लीजिए और अतिथि को खिला दोजिए। पिता ने कहा-वृद्ध की अपेक्षा युवक को अधिक भूख लगती है, अतः मैं तुम्हारा हिस्सा नहीं दे सकता।। पुत्र-पिता के वृद्ध होने पर उसकी रक्षा का भार पुत्र पर होता है। पिता ही तो पुत्र बनता है अतः मेरा हिस्सा स्वीकार कर अध-भूखे अतिथि को संतुष्ट करें। पुत्र की बात को सुनकर ब्राह्मण को प्रसन्नता हुई। उसने उसका हिस्सा भी अतिथि को खिला दिया। तथापि अतिथि का पेट न भरा । ब्राह्मण किंकर्तव्य विमूढ हो गया । अब इन्हें कैसे सन्तुष्ट करू ? उसी समय पुत्र-वधु ने कहा-मैं अपना हिस्सा भी अतिथि देव को समर्पित करती हैं। यह उन्हें खिला दीजिए। ब्राह्मण ने कहा-पुत्री ! तुम अभी लड़की हो, तुमने कितने कष्ट किये हैं, तुम्हारा शरीर भूख से बहुत ही कृश हो गया है । तुम्हें भूखी रखकर अतिथि को दान देना न्याय नहीं है। Jain Education Internationa Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अमिट रेखाएं पुत्र-वधू ने कहा-'आप मेरे स्वामी के पिता है, गुरु के गुरु हैं, मेरा आटा आपको स्वीकार करना ही होगा ।' यह सुनते ही ब्राह्मण की प्रसन्नता का पार न रहा। उसने उसके हिस्से का आटा भी अतिथि के सामने रख दिया। अतिथि ने उसे खाकर तृप्ति का अनुभव करते हुए कहा - तुम्हारे इस दान से मैं सन्तुष्ट हूं। उस समय मैं वहां पर गया, उस आटे की सुगन्ध से मेरा सिर सुनहरा हो गया उस आटे के कण-कण में लोटा, जिससे मेरा आधा शरीर सुनहरा हो गया। उसके बाद कई स्थानों पर गया, पर आधा शरीर सुनहरा नहीं हुआ। महान् यज्ञ की बात सुनकर यहां आया कि शेष शरीर सुनहरा हो जाय, पर आशा पूर्ण न हुई, एतदर्थ ही मैंने कहा-उस महान् यज्ञ के समान आपका यज्ञ नहीं है । उस दान के बराबर आपका दान नहीं है। Jain Education Internationa Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2 है | सी खीझ और रीझ महाराजा अमनसिंह बहुत मनमोजी, अल्हड, और सरल हृदय का राजा था । उसे सवारी का बहुत ही शोक था । उसने सवारी के लिए विशेष हाथी रखा था । उस पर जो विशाल भूल डाली जाती थी, उस पर सोने-चांदी का जड़ाऊ का काम किया गया था और हजारों बहुमूल्य हीरे और मोती जड़े हुए थे | वह देखने में बहुत ही सुन्दर लगती । एक बार सवारी निकल रही थी ! एक नाई हाथी के पीछे चल रहा था । चमचमाते हुए हीरे को देखकर उसके मुंह में पानी आ गया । उसने इधर-उधर देखकर लोगों की आँख बचाकर भूल में से एक हीरा निकाल लिया । राजा अमनसिंह ने उसे हीरा निकालते हुए देख लिया, उन्हें बहुत ही क्रोध आया । सजा सुनाते हुए सिपाहियों को आदेश दिया 'इस नाई को लेकर तालाब पर जाओ, पानी में डुबाओ और निकालो, जब तक कि इसके प्राण न निकल जाय । उसी समय राजा की आज्ञा का पालन किया गया । सिपाही नाई को लेकर तालाब पर गये । पुनः पुनः पानी Jain Education Internationa Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२ अमिट रेखाएं में डुबाने और निकालने लगे । नाई की स्थिति गंभीर से गंभीरतर होती गई । मरणासन्न होने लगा तभी नाई के मस्तिष्क में एक बात आई और उसने सिपाहियों से निवेदन किया - अब मैं संसार से विदा हो रहा है। प्रत्येक प्राणी की अन्तिम इच्छा पूर्ण की जाती है, मेरी भी एक इच्छा है उसे पूर्ण करें । सिपाहियों ने नाई का सन्देश राजा के पास पहुँचाया, अमनसिंह कुछ क्षण तक चिन्तन करते रहे, फिर उन्होंने आदेश दिया कि नाई को दरबार में उपस्थित किया जाय । नाई दरबार में लाया गया । उसने राजा के चरण छूकर हांफते हुए कहा- राजन् ! यह मेरा अन्तिम समय है, मैंने सुना था कि राजा साहब की खीझ और रीझ दोनों ही विचित्र हैं । खीझ का नमूना तो मैंने अपनी आँखों से देखा पर अन्तिम इच्छा आपकी रीझ को देखने की रह गई । नाई की बात सुनकर राजा का चेहरा खिल उठा । उन्होंने वह हाथी सजाया, उस पर वही झूल डलवाई और नाई को उस पर बिठाकर उसके घर पर भिजवा दिया और उस सजे-सजाये हाथी को भी नाई को दान में दे दिया । Jain Education Internationa Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भक्त रैदास भक्त रैदास का जीवन प्रामाणिक और पवित्र जीवन था। वे प्रतिपल-प्रतिक्षण भक्ति में ही लीन रहते थे। कर्तव्य को विस्मृत होकर भक्ति करना उन्हें पसन्द नहीं था। परिवार के भरण-पोषण के लिए वे जूते गांठते थे। दिन भर के कठोर श्रम के पश्चात् जो कुछ भी कमा पाते उससे उनकी गृहस्थी चलती। आय कम होने पर भी सन्तोष अधिक था। वे संग्रह को पाप मानते । जब भी उन्हें समय मिलता उसे वे सत्संगति और प्रभु-भक्ति में व्यतीत करते । एक बार गंगा के किनारे भारी मेला लगा था। हजारों व्यक्ति दूर-दूर से गंगा स्नान के लिए जा रहे थे। एक पण्डित भी उधर बढ़ रहा था। उसका अध्ययन कम था पर अहंकार बहुत ज्यादा था। उसके जूते फट गये थे। ज्यों ही वे रैदास के गांव में से गुजरे रैदास को जूते गांठते हुए देखकर अपने जूते भी ठीक करने को कहा। रैदास ने कहा-पण्डित प्रवर ! आप कुछ समय वृक्ष की शीतल Jain Education Internationa Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४ अमिट रेखाएं छाया में विश्राम लीजिए। पहले जो अन्य कार्य आया हुआ है उसे सम्पन्न कर आपकी सेवा करूंगा। पण्डितजी विश्रान्ति के लिए वृक्ष की शीतल छाया में बैठ गये। अपने पाण्डित्य का प्रदर्शन करने के लिए उन्होंने गंगा के महत्त्व पर लम्बा चौड़ा भाषण दिया और कहा-कि तुम्हें भी गंगा-स्नान कर पवित्र होना चाहिए। रैदास ने कहा- पण्डितजी ! मैं असमर्थ हैं, मैं गंगा स्नान के लिए चलूंगा तो पीछे मेरा परिवार भूखा मर जायेगा। मैं प्रामाणिकता के साथ अपने दायित्व को निभाता हुआ जो भी समय मिलता है प्रभु स्मरण कर लेता हूँ। पण्डितजी का अहं सातवें आसमान को छूने लगा। उन्होंने घृणा से मुंह फेरते हुए कहा- तुम्हारा जैसा अधम कभी भी गंगा-स्नान का पुण्य नहीं कमा सकता। पण्डित के मिथ्या अहंकार को नष्ट करने के लिए भक्त रैदास ने कहा- पण्डित प्रवर ! मैंने आपके जूते ठीक किये हैं, मैं उसका पारिश्रमिक आपसे नहीं लूगा। एक मेरा छोटा-सा कार्य कर देंगे तो आपका अहसान जीवन भर नहीं भूलूंगा। पण्डित ने उत्सुकता से पूछा-बताओ क्या बात है ? रैदास ने अपनी जेब में से सुपारी निकाली और पण्डित को देते हुए कहा-आप तो गंगा-स्नान का महान् पुण्य कमायेंगे, पर मैं वह नहीं कमा सकता। मेरी भी गंगा के प्रति गहरी निष्ठा है। मेरी ओर से यह सुपारी Jain Education Internationa Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भक्त रैदास २५. आप गंगा को समर्पित करें, पर शर्त यह है कि यदि गंगामाता स्वयं हाथ फैलाएं तो दें, अन्यथा नहीं।। पण्डित का रोष भड़क उठा, मूर्ख कहीं के, आज दिन तक बड़े-बड़े ऋषि और महर्षियों के लिए भी गंगा ने हाथ नहीं पसारे, क्या वह तेरी सुपारी के लिए हाथ पसारेगी। भक्त रैदास ने उसी शान्ति के साथ कहा- यदि गंगामैया हाथ न पसारे तो मेरी सुपारी पुनः ले आइएगा, क्योंकि आपको पुनः अपने घर लौटने का रास्ता तो यही है न । पण्डित मन ही मन में रैदास की मूर्खता पर हंस रहा था । वह सुपारी लेकर चल दिया। गंगा-स्नान से निवृत्ति के पश्चात् उसने सुपारी की परीक्षा के लिए हाथ में सुपारी लेकर कहा-गंगा मैया ! हाथ फैलाओ, भक्त रैदास की सुपारी ग्रहण करो। पर पण्डित देखता ही रह गया, उसी समय गंगा में से एक हाथ बाहर आ गया। उच्च स्वर में आवाज हुई-- मेरे भक्त की सुपारी मुझे दो, और मेरी और से यह कंगन रैदास को दे देना। ___ कंगन बहुमूल्य हीरों से जड़ा था। उसकी कीमत करोड़ों की थी। कंगन को देखकर पण्डित का मन ललचाया। उसने अपने घर जाने का मार्ग ही बदल दिया। कंगन रैदास को देने के बदले वह उसे अपने घर ले आया। सभी ने तीर्थयात्रा की सफलता पर उसे बधाई दी। पण्डित ने अपने वृद्ध पिता को कंगन दिखाते हुए कहा-देखिए Jain Education Internationa Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६ अमिट रेखाएं गंगा-मैया ने मुझे यह समर्पित किया है। पिता ने कहातू महान सौभाग्यशाली है जिससे गंगा तेरे पर प्रसन्न है। यह करोड़ों की कीमत का कंगन कोई भी देखेगा तो यही समझेगा कि चुरा कर लाया है । श्रेयस्कर तो यही है कि इसे राजा को भेंट कर दो. जिससे उसकी कृपा हमारे परिवार पर रहेगी। और हम सदा के लिए सुखी बन जायेंगे। पण्डित को पिता का सुझाव अच्छा लगा। वह कंगन को लेकर राज-सभा में पहुँचा । राजा को कंगन समर्पित करते हुए गंगा का प्रसंग सुनाया तो राजा के आश्चर्य का पार न रहा। राजा ने कंगन रख लिया और एक लाख रुपए उसे पुरस्कार में दे दिये । राजा ने वह कंगन अपनी रानी को भेंट किया। रानी ने कंगन को पहना, सभी ने उसको सराहना की। इतने में एक दासी ने कहा--रानी साहिबा ! एक हाथ तो सुन्दर लगता है पर दूसरा हाथ सूना-सूना लग रहा है। क्या दूसरा ऐसा कंगन नहीं है क्या ? दासी की बात रानी के दिल में चुभ गई। उसने तत्काल राजा को बुलाकर कहा। राजा ने पण्डित को बुलाकर दूसरा कंगन लाने का आदेश दिया। पण्डित के तो होश ही गायब हो गए। वे हक्के-बक्के होकर जमीन की ओर देखने लगे। क्या उत्तर दूं समझ में नहीं आ रहा था। तभी राजा ने लाल आंखें कर कहा कि शीघ्र ही आदेश का पालन होना चाहिए । पण्डित ने धीरे से Jain Education Internationa Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भक्त रैदास २७ गंगा की ओर प्रस्थान किया। गंगा के किनारे खड़े रहकर उसने प्रार्थना की । गंगा ने प्रकट होकर कहा-नराधम । तुझे शर्म नहीं आती, वह कंगन मैंने अपने भक्त रैदास को देने के लिए दिया था, तुने उसे बताया भी नहीं, और राजा को दिया, और राजा के दिये हुए रुपए भी हजम कर गया । अब भी रुपए ले जाकर रैदास को दे, अन्यथा तुझे नष्ट कर दूंगी। _ मृत्यु के भय से घबराया हुआ, पण्डित उलटे पैरों घर पहुँचा और वे सारे रुपए लेकर रैदास के यहाँ पहुँचाये । रुपए रैदास के सामने रख कर रोते रोते सारी घटना सुनादी । भक्त रैदास ने कहा--मैं रुपये लेकर क्या करूं, इसे रखने के लिए मेरे पास जगह ही नहीं है । मैं बिना श्रम का पैसा नहीं ले सकता । आप ही इन्हें ले जाइये । पण्डित ने रोते हुए कहा—मैं तो मारा गया । मेरे पर गंगा रुष्ट है, राजा रुष्ट है, और आप भी रुष्ट हो गए। मेरा अपराध क्षमा करो, मेरी रक्षा करो। भक्त रैदास के सामने कठिन समस्या थी कि वह किसी से कुछ भी लेना नहीं चाहता था, और प्रतिदिन श्रम करते गंगा तक भी नहीं जा सकता था। उसका दयालु हृदय पण्डित के करुण-क्रन्दन को सुनकर द्रवित हो गया। उसने सोचा, तो स्मरण आया कि 'मन चंगा तो कठौती में गंगा' मैंने आज दिन तक किसी का भी मन से बुरा नहीं किया। यदि मैं यहां से भी गंगा की स्तवना करूं तो कंगन मुझे मिल सकता है। उसने चमड़ा भिगोने की कठौती अपने Jain Education Internationa Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८ अमिट रेखाएं सामने रखी और पानी को गंगा मान स्तवना करने लगा। पण्डित को यह देखकर गुस्सा आ गया, उसने कहा-अरे पापी ! इस अपवित्र पानी को गंगा मानता है। भक्त रैदास भक्ति में लीन था। कुछ ही क्षण में गंगा माता हाथ में कंगन लेकर उपस्थित हुई, उसके हाथ में कंगन दिया और उसके हाथ में रखी सुपारी को लेकर अन्तर्ध्यान हो गई । रैदास ने वह कगन पण्डित को दे दिया। पण्डित देखता ही रह गया। उसने श्रद्धा से भक्त रैदास से चरणों में सिर झुका दिया । तुम चमार नहीं ब्राह्मण हो, तुम्हारी साधना महान है। Jain Education Internationa Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ | राजकुमार का चातुर्य देवनगर के राजा विक्रम की स्वर्णलता इकलौती पुत्री थी, अत्यन्त विलक्षण प्रतिभा की धनी थी, साथ ही रूप में अप्सरा के समान थी। राजा उसका पाणिग्रहण ऐसे मेधावी राजकुमार के साथ करना चाहता था, जो उनके परीक्षण प्रस्तर पर खरा उतरे । राजा ने अपने बुद्धिमान मंत्री से मंत्रणाकर बीहड़ जंगल में दुर्गम घाटियों के बीच पर्वत की अपत्यकाओं व उपत्यकाओं से घिरी हुई समभूमि थी, जहां पर पहुँचना किसी के लिए संभव नहीं था, वहां पर महल बनाया। महल बनाने वालों के लिए कलाकार व मजदूरों को आंखों पर पट्टी बांध कर वहां पर ले जाया गया और पुनः उसी प्रकार लाया गया। राजकुमारी स्वर्णलता को उसी महल में रखा गया। राजा विक्रम ने यह उद्घोषणा करवाई कि तीन दिन की अवधि में जो राजकुमार राजकुमारी स्वर्णलता को खोज लेगा उस राजकुमार के साथ राजकुमारी का प्राणिग्रहण किया जायेगा । जो राजकुमार यह कार्य न कर सकेगा वह बन्दी बना दिया जाएगा। Jain Education Internationa Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३० अमिट रेखाएं राजकुमारी के सौन्दर्य और बुद्धि-कौशल की चर्चाएं फैल चुकी थी । अनेक राजकूमार उसके साथ विवाह करना चाहते थे, उन्होंने राजकुमारी को प्राप्त करने के लिए प्रयत्न किया, पर प्राप्त न कर सके । अनुत्तीर्ण होने से राजा के द्वारा बन्दी बना लिए गए। राजकुमार शौर्यसिंह ने स्वर्णलता के सम्बन्ध में सुना, उसे पाने के लिए उसका मन भी ललक उठा, साथ ही यह भी सुना को बीसो राजकुमार परीक्षा में अनुत्तीण होने से बन्दी बना लिए गए हैं । शौर्यसिंह ने गंभीरता से विचार विमर्श कर यह निर्णय किया कि अपनी बुद्धि का चमत्कार दिखाकर राजकुमारी को प्राप्त भी करना है और साथ ही बन्दी राजकुमारों को मुक्त भी करना है, अतः बन्दी राजकुमारों के पिताओं को अपने यहां निमन्त्रण देकर बुलवाया और कहा—यदि आप कुछ भी सहयोग प्रदान करें तो मैं आपके पुत्रों को एक महिने में मुक करवा सकता हूं । सहयोग में आप केवल सौ-सौ तोला सोना और पांचपाँच सहस्र मुद्राएं दीजिए। यदि एक महीने की अवधि में मुक्त न हो तो आपको व स्वर्ण मुद्राए लौटा देंगे। सभी राजा अपने पुत्रों को मुक्त करवाना चाहते थे, उन्हें वह योजना पसन्द आ गई। उन्होंने उसी समय सौसौ तोला सोना और पांच-पांच हजार मुद्राएँ राजकुमार को दे दी। ___ राजकुमार उस स्वर्ण और धन को लेकर देवनगर आया। उसने राजकुमारी के महल को अन्वेषणा की, पर Jain Education Internationa Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१ राजकुमार का चातुर्य पता न लग सका। लोगों ने कहा-राजकुमारी ऐसे महल में है उसका मार्ग मंत्री और राजा के अतिरिक्त कोई भी नहीं जानता। __ शौर्यसिंह प्रतिभा का धनी था, वह एक महान कलाकार स्वर्णकार के पास पहुँचा, और स्वर्ण का ढेर उसके सामने रखकर कहा कि इस सोने से ऐसा कलात्मक घोड़ा बनाओ कि जिसके पेट में एक व्यक्ति आराम से बैठ सके । और रत्नों के जड़ाई का कार्य इस तरह से किया जाय कि अन्दर बैठा व्यक्ति किसी को न दीख सके । आज से पन्द्रह दिन के पश्चात् राजा विक्रम का जन्म दिन आने वाला है उसके उपलक्ष में यह बहुमूल्य उपहार भेंट करना है, अतः शोघ्र तैयार कर दो। । कुछ ही दिनों में घोड़ा तैयार हो गया। राजकुमार शौसिंह को घोड़ा बहुत ही पसन्द आया। उसने स्वणकार को उपहार प्रदान करते हुए कहा-मुझे घोड़े में बिठाना, और जन्म-दिवस के उपलक्ष में घोड़ा राजा को भेंट कर देना और साथ ही राजा से यह निवेदन भी कर देना कि यह उपहार राजकुमारी को भी दिखाया जाय । स्वर्णकार सहमत हो गया। ___ जन्मदिवस के उपलक्ष में अनेकों व्यक्तियों ने राजा को उपहार अर्पित किए, पर सबसे बहुमूल्य और अद्भुत उपहार स्वर्णकार का रहा। राजा ने उसे बहुत ही प्रेम से ग्रहण किया । समय देखकर स्वर्णकार ने कहा-कितना अच्छा हो, यह उपहार राजकुमारी को भी दिखाया जाय । राजा Jain Education Internationa Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२ अमिट रेखाएं ने स्वर्णकार के प्रस्ताव को स्वीकार कर लिया। उसी दिन राजा ने अनुचरों के आँखों पर पट्टियां बाँध कर घोड़े को ले चलने लिए आदेश दिया । राजा आगे चल रहा था और मंत्री पीछे । विकट घाटियों को लांघते हुए वे कुछ ही घंटों में राजकुमारी के महलों में पहुंच गये। राजकुमारी घोड़े को देखकर अत्यन्त प्रसन्न हुई। घोडे को वहीं पर छोड़कर मंत्री और और राजा लौट गए। राजकुमारी हाथ फिराकर अच्छी तरह से घोड़े को देख रही थी। सहसा घोड़े का पेट खुला और उसमें से शौर्यसिंह बाहर निकल आया । रात्रि के समय एक युवक को अपने महल में देखकर राजकुमारी स्तम्भित थी। शौर्यसिंह ने उसी समय कहा- राजकुमारी ! भयभीत न बनो, मैं कोई उचक्का युवक नहीं हूँ, मैं राजकुमार हूं, बिना तेरी इच्छा के मैं एक कदम भी आगे न रखूगा । मेरी इच्छा तुम्हारे साथ विवाह की है, यदि तुम चाहोगी तो तुम्हारे पिता की प्रतिज्ञा पूर्ण हो सकेगी। राजकुमार शौर्यसिंह के दिव्य रूप और वाक् चातुर्य को देखकर राजकुमारी स्वर्णलता अत्यधिक प्रभावित हुई । उससे कहा-आप मेरे पिता की प्रतिज्ञा पूर्ण करें। ___ रात भर स्वर्णलता के साथ शौर्यसिंह की मधुरमधुर बातें होती रही। रात पूर्ण होने के पहले ही शौर्यसिंह घोड़े में जाकर बैठ गया। दूसरे दिन राजा राजकुमारी के महलों में आया, घोड़े के सम्बन्ध में चर्चायें चली, राजकुमारी ने मुक्त Jain Education Internationa Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राजकुमार का चातुर्य कंठ से घोड़े की प्रशंसा की। राजा ने पूछा-बताओ ! इसमें कोई कमी तो नहीं है न ! __राजकुमारी-घोड़ा सुन्दर ही नहीं, अति सुन्दर है। यदि इसकी आँखें रत्नों के स्थान पर मोती को होती तो अधिक सुन्दर रहती। राजा ने कहा-इसमें क्या बड़ी बात है, स्वर्णकार से कहकर परिवर्तन करा दिया जायेगा। राजा ने उसी दिन अनुचरों से घोड़ा स्वर्णकार के यहाँ पहुँचा दिया। राजा के आदेश के अनुसार घोड़े की आंख में परिवर्तन कर दिया गया। शौर्यसिंह के स्थान पर किसी भारी वस्तु को उसमें रख दिया गया। __राजकुमार शौर्यसिंह राजा विक्रम की राज सभा में पहुँचा और राजकुमारी के साथ विवाह का प्रस्ताव रखा। राजा विक्रम ने तीन दिन में राजकुमारी के महल को खोजने की बात कही। राजकुमार ने तपाक से कहा-यदि मैं एक दिन में खोज दूं तो क्या पुरस्कार देंगे। राजा विक्रम ---जो आप चाहेंगे, वह राजकुमार—सभी बन्दी राजकुमारों को मुक्त करना होगा। शौर्यसिंह ने उसी समय राजकुमारी के महल को खोज निकाला। सभी चकित थे। राजा विक्रम की Jain Education Internationa Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४ अमिट रेखाएं जिज्ञासा पर राजकुमार ने स्वर्ण - अश्व की सारी घटना सुना दी, मैंने आते और जाते मार्ग का पता लगा लिया था । राजकुमारी स्वर्णलता के साथ उत्साह के क्षणों में पाणि ग्रहण सम्पन्न हुआ, और सभी बन्दी राजकुमारों को मुक्त कर दिया। सर्वत्र राजकुमार के बुद्धि-कौशल की प्रशंसा होने लगी । Jain Education Internationa Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विजय का रहस्य बहुत ही पुरानी घटना है, उस समय कलिंग देश पर एक युद्ध प्रेमी राजा राज्य करता था । उसके पास विराट् सेना थी । वह सभी को युद्ध के लिए ललकारता रहता था । आतंक सर्वत्र छा गया, कोई भी उससे लड़ने का साहस नहीं करता था । वह जिससे भी लड़ने को तैयार होता वह पहले ही राजा के सामने घुटने टेक देता । एक दिन कलिंग राज ने अपने मंत्रियों से कहा- मैं इस प्रकार बैठा-बैठा ऊब गया, मेरे से कोई भी युद्ध करने को प्रस्तुत नहीं है, कोई ऐसा उपाय बताओ, जिससे मेरी इच्छा पूर्ण हो सके । एक चतुर मंत्री ने कहा- राजन् । आपकी कन्याएं रूप और गुण में अद्वितीय हैं । अनेक राजा उनसे विवाह करने के लिए लालायित हैं । राजकुमारियों को स्वर्ण रथ में बिठाकर चारों ओर परदा डाल दीजिए, और सारथी को यह आदेश दे दें कि सभी राज्यों में क्रमशः रथ को ले जायें, और रथ के आगे सैनिक यह उद्घोषणा करें कि जो भी व्यक्ति अपने को मर्द मानता हो, वह इन कन्याओं Jain Education Internationa Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अमिट रेखाएं के रथ को अपने महलों में ले जा सकता है बशर्ते कि उसे कलिंग राज के साथ युद्ध करना पड़ेगा। संभव है कोई मूर्ख राजा इसके लिए तैयार हो जायेगा। कलिंग राज को यह युक्ति बहुत पसन्द आई। उसने उसी समय अपनी कन्याओं को बिठाकर रवाना कर दी। रथ बिना रुकावट के निन्तर आगे बढ़ता हुआ चला जा रहा था। सभी कलिंगराज से भयभीत थे। रथ घूमता हुआ अस्सकराज की ओर बढ़ा । अस्सकराज ने उपहार आदि देने का सोचा, किन्तु नहामंत्री नन्दिसेन ने कहा --- राजन् । पौरसहीन कहलाने के बजाय तो पुरुषार्थ दिखाते हुए मरना श्रेयस्कर है। आप उनके चरणों में समर्पित न न होइए, पर ससम्मान उन कुमारियों को महल में बुला लीजिए। भविष्य में जो होगा वह देखा जायेगा। लोगों को ज्ञात तो हो कि अभी दुनिया में एक सच्चा मर्द तो है । ____ मंत्री नन्दिसेन की प्रबल प्रेरणा से उत्प्रेरित होकर उस्सकराज ने राजकुमारियों को महल के भीतर बुलवा लिया और कलिंगराज को सूचना भिजवा दी। कलिंगराज तो युद्ध के लिए पहले से ही छटपटा रहा था। उसकी भुजाएं फडक रही थी। वह अपनी विराट् सेना सजाकर अस्सकराज की ओर चल पड़ा। लिंगराज की सेना अस्सकराज के राज्य की सीमा पर आकर रुकी, इधर से अस्सकराज भी अपनी सेना लेकर वहां पहुँच गया। - युद्ध भूमि के सन्निकट ही एक पहुँचे हुए योगीराज Jain Education Internationa Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विजय का रहस्य ३७ की कुटिया थी। कलिंगराज वेश परिवर्तन कर महात्मा के पास पहुँचा और पूछा भगवन् । युद्ध में किस राजा की विजय होगी? ___ महात्मा ने कहा-इस प्रश्न का सही उत्तर आज नहीं कल दूंगा। राज में महात्मा ने देव को आह्वान किया, और वही प्रश्न उसके सामने दुहराया। देव ने कहा-क्या पूछते हैं विजय तो कलिंगराज की ही होगी। यद्ध में अस्सकराज को कलिंगराज की सेना में सफेद रंग का बैल दिखाई देगा, वही बैल-उसकी विजय श्री का कारण होगा। और अस्सकराज की सेना में कलिंगराज को काला बैल दिखाई देगा, जो महान् अशुभ है, वही उसके पराजय का कारण होगा।' देव इतना बताकर अन्तान हो गया। दूसरे ही दिन कलिंगराज ने योगीराज से पूर्ववत ही गुप्तवेश में आकर प्रश्न किया। योगीराज ने देव की बात बतादी कि विजय कलिंगराज की होगी" कलिंगराज उछलता हआ अपने डेरे में आगया, और उसने योगीराज की भविष्यवाणी की बात अपने सैनिकों को बतादी। गुप्तचर के द्वारा अस्सकराज के पास ये समाचार पहुँचे, वह पहले से ही डरा हुआ था और यह सुनते ही वह अध-मरा हो गया। मंत्री नन्दिसेन ने समझाया पर उसका राजा के मन पर कुछ भी प्रभाव न पड़ा । ___मंत्री नन्दिसेन स्वयं योगी की झोपड़ी में गया और सारी बातें पूछी, योगी ने विस्तार से उसे वह बता दिया । Jain Education Internationa Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८ अमिट रेखाएं मंत्री ने पुनः प्रश्न किया कि जीतने वाले और पराजित होने वाले के क्या शुभ और अशुभ लक्षण होंगे? योगी ने कहा-अस्सकराज को कलिंगराज की सेना में सफेद बैल दिखाई देगा, वही कलिंगराज की विजय का कारण होगा और कलिंगराज को अस्सकराज की सेना में काला बैल दिखलाई देगा वही उसकी पराजय का कारण होगा। मंत्री नन्दिसेन अपने स्थान पर लौट आया। किन्तु वह निराश नहीं हुआ। उसने एक हजार चुनिन्दे वीर सैनिकों को अपने पास बुलाया और कहा--सत्य कहना, क्या तुम अपने राजा के लिए प्राण दे सकते हो, सभी ने स्वीकृति सूचक सिर हिलाया। नन्दिसेन ने कहा-तो तुम अपने राजा के कल्याण हेतु इस पहाड़ से कूद पड़ो। सभी आगे बढ़े, पर नन्दिसेन ने कहा इस समय नहीं, पर समय पर आत्म-बलिदान के लिए तैयार रहना। कलिंगराज और उसके सैनिक पहले से ही अपनी विजय मानकर गुलछर्रे उड़ा रहे थे। उसने विजय के लिए कोई विशेष प्रयत्न नहीं किया, पर अस्सकराज अपनी पूरी शक्ति लगाकर लड़ रहा था। नन्दिसेन उसे बराबर प्रेरणा दे रहा था । अत्यधिक प्रयत्न करने पर भी कलिंगराज की सेना पीछे नहीं हट रही थी। नन्दिसेन ने अस्सकराज से पूछा-राजन् ! क्या आपको कलिंगराज की सेना में कोई जानवर दिखलाई दे रहा है ? Jain Education Internationa Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विजय का रहस्य ३६ राजा ने कहा- उसकी सेना में एक विचित्र ढंग का श्वेत बैल दिखलाई दे रहा है। नन्दिसेन ने अपने विश्वस्त एक हजार सैनिकों को आगे कर कहा-राजन् । सर्व प्रथम आप उस बैल को मार दीजिए. उसी बैल के कारण कलिंगराज की विजय है, फिर शत्रुओं को परास्त कीजिएगा। राजा अस्सकराज वीर सैनिकों के साथ शत्रु की सेना को परास्त करता हुआ उस दिव्य बैल के पास पहुँच गया, और उसे समाप्त कर दिया। दैवी बैल के समाप्त होते ही कलिंगराज की सेना मैदान छोड़कर भागने लगी। कलिंगराज का विजय स्वप्न मिथ्या हो गया। प्राण बचाकर भागते हुए कलिंगराज ने महात्मा को पुकारा कि अरे धूर्त । तेरी भविष्य वाणी को सत्य मानकर मैंने बड़ा धोखा खाया है तेरी बात पर विश्वास न कर यदि मन लगाकर युद्ध करता तो यह दुर्गति न होती। __ योगी को भी देव-वाणी मिथ्या होने से आश्चर्य हुआ। उसने पुनः रात में देव को आह्वान किया। देवने कहाभाग्य पुरुषार्थी व्यक्ति को ही सहायता करता है। उसने संयम, धैर्य और साहस के साथ पराक्रम दिखाया उसी से उसे सफलता मिली है। पुरुषार्थी देव-वाणी को भी मिथ्या कर सकता है। (बौद्ध साहित्य में से) Jain Education Internationa Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ | प्रतिभा की प्रतिभा राजा क्षितिप्रतिष्ठित के पास एक मोर था, वह बड़ा ही मनोहर था। राजा जब भी भोजन करने बैठता तब प्रथम उसे भोजन कराता, क्योंकि विष-मिश्रित भोजन कर वह नाचने लगता, विष का उस पर साधारण रूप से असर नहीं होता। राजमहल के पास ही प्रवीण श्रेष्ठी का मकान था । प्रवीण की पत्नी प्रतिभा गर्भवती हुई। उसे मयूर मांस खाने की प्रबल इच्छा हुई। राजा का मोर घूमता हुआ वहां आया, और प्रतिभा ने उसे मार कर अपनी दोहृद इच्छा पूर्ण की। भोजन का समय हुआ, पर मोर महल में तलाश करने पर भी नहीं मिला, तो राजा ने उसकी खोज प्रारम्भ की, पर कुछ भी अता-पता न लगा। राजा ने उसकी खोज के लिए नगर में ढिंढोरा पिटवा दिया कि जो मोर को तलाश करके लायेगा उसे पुरस्कार प्रदान किया जायेगा। एक बुढिया नाईन ने ढिंढोरा सुनकर सात दिन में Jain Education Internationa Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रतिभा भी प्रतिभा खोज निकालने का वायदा किया। उसने सोचा मयूर राजमहल के आसपास के घरों में ही गया होगा अतः वह सर्वप्रथम प्रवीण के भव्य भवन में गई । प्रतिभा से उसने पूछा-आप गर्भवती हैं, आपको क्या दोहृद उत्पन्न हुआ। बुढ़िया नाईन की बातों को चतुराई से प्रतिभा इतनी प्रभावित हुई थी कि उसने सारा मयूर काण्ड सुना दिया। मयूर का सही पता लगाने से बुढ़िया अत्यधिक प्रसन्न थी, वह शीघ्र ही वार्तालाप पूर्ण कर राजमहलों में गई और राजा को अभिवादन कर मयूर की कहानी को नमक मिर्च लगाकर सुनादी और पुरस्कार की प्रार्थना की। पर राजा ने उसकी बात का प्रतिवाद करते हुए कहा-तेरी बात मिथ्या है, मैं तेरी बात स्वीकार नहीं कर सकता, प्रवीण और प्रतिभा को मैं जानता हूँ वे ऐसे नहीं हैं। बूड़ी नाईन ने कहा--आप मेरी बात पर भले हो विश्वास न करें, पर प्रतिभा के मुंह से मैं कहला हूँ फिर तो विश्वास करेंगे न ! आप मेरे साथ चलें, मैं अपनी चतुराई से आपको सारी बात सुनवा दूंगी। वेष परिवर्तन कर राजा प्रवीण के मकान के सहारे खड़ा हो गया। बुढिया ने मकान में प्रवेश किया और उच्च स्वर से बोलने लगी कि मेरा मन कहता है कि इस समय तुम्हारे पुत्र होगा, यदि तुम्हारे पुत्र हो तो मुझे मिठाई खिलानी पड़ेगी और पुरस्कार भी देना पड़ेगा। Jain Education Internationa Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अमिट रेखाएं प्रतिभा ने मुस्कराते हुए कहा- तुम्हारी बात सत्य सिद्ध हो ! तुम कहोगे वैसा ही किया जायेगा । कुछ समय प्रतीभा की मीठी-मीठी बातों में उलझा कर उसने धीरे से पूछा- बताओ न ! तुमने राजा के मयूर को कैसे मारा | ४२ प्रतिभा ने कहा- वह प्रतिदिन मेरी दीवाल पर आता ही था। खाने के प्रलोभन से वह मेरे आंगन में उतरा और मैंने एक झटके में उसकी गर्दन तोड़ दी, और हृदय का माँस पकाकर खा गई । और पंख, पैर, हड्डी आदि भूमि में गाड़ दिये । राजा को लक्ष्य में रखकर नाईन ने कहा - दीवाल तुम भी सुन लो प्रतिभा क्या कहती है । प्रतिभा सकपका गई, वह समझ गई कि यह दीवाल के बहाने किसी को संकेत कर रही है, यह तो षडयंत्र है । उसने उसी क्षण कहा- मेरा सपना टूट गया और आँख खुल गई । आश्चर्य चकित हो नाईन ने पूछा- क्या तुम सपने की बात कर रही हो । प्रतिभा -- आप क्या समझी, क्या मैं कभी हत्या जैसा निकृष्ट कार्य कर सकती हूँ । तुम इतने दिनों से मेरे सम्पर्क में रही हो तथापि तुम मुझे नहीं पहचान सकी । नाईन के तो पैरों के नीचे की जमीन ही खिसकने लगी । उसका सिर चकराने लगा, पैर लडखडाने लगे । Jain Education Internationa Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रतिभा की प्रतिभा ४३ जब वह राजा के पास पहुँची तब राजा ने उसे फटकारते हुए कहा- तुम्हें लज्जा नहीं आती बुढ़ी हो, फिर भी झूठ बोलती हो । जाओ इस समय मैं तुम्हें मांफ करता हूँ और जाकर मोर की तलाश करो । वह मोर को तलाश करती रही पर मोर उसे मिला नहीं । Jain Education Internationa Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ | सन्देह की मुक्ति एक श्रेष्ठी अपने प्यारे पुत्र की शादी कर लौट रहा था। उसका शहर उस शहर से अस्सी मील दूर था । बारात ने रात्रि विश्राम जंगल में किया, पास ही सरिता की सरस धाराएं बह रही थीं, चारों ओर हरियाली छा रही थी, सघन वृक्षावली थी। सायंकाल का भोजन कर सभी लोग सो गये। दुलहिन जग रही थी, उसे अभी तक निद्रा नहीं आई थी। आधी रात हो चुकी थी, सहसा एक शृगाल के शब्द उसके कानों में गिरे यदि समझ है तो सुनो, जम्बुक वचन उदार । नदी तीर शव जांध में, रत्न पड़े हैं चार ।। दुलहिन पशु-पक्षियों की आवाज पहचानती थी। वह बहुमूल्य चार रत्नों के लेने का लोभ संवरण न कर सकी। वह उसी क्षण उठी। उसने चारों ओर पैनी दृष्टि से देखा कि कोई जग तो नहीं रहा है उसे अनुभव हुआ कि सभी गहरी निद्रा में सो रहे हैं, वह अकेली नदी की ओर चल पड़ी। दुल्हा की निद्रा एकाएक खुल गई। दुलहिन की Jain Education Internationa Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सन्देह की मुक्ति गति-विधियों को जानने के लिए वह भी धीरे से उसके पीछे हो गया। अंधेरी रात थी, भयानक जंगल था और अकेली दुलहिन को इस प्रकार नदी की ओर जाते हुए देखकर उसके मन में अनेक प्रश्न उबुद्ध हो रहे थे, विना किसी आहट के वह उसका अनुगमन कर रहा था। दुलहिन नदी के तट पर पहुँची, उसने झाड़ियों के बीच में शव पड़ा हुआ देखा, उसने घसीट कर बाहर निकाला, उसकी जांघ को ध्यान पूर्वक देखा, उसे ज्ञात हुआ कि यहां टांके लगे हुए हैं अपने पास की छुरी से उसे चीर कर । चार अनमोल रत्न निकाल लिये, रत्नों को लेकर, नदी में स्नानकर वह पुनः अपने शिविर में आकर सो गई। उसे सन्देह ही नहीं था कि उसका कोई पीछा कर रहा है। दुल्हे ने जब यह देखा तो उसे यह विश्वास हो गया कि उसकी पत्नी डायन है, उसने मुर्दे के मांस को खाया है, यदि कभी इसे इस प्रकार मांस न मिलेगा तो यह मुझे खा जायेगी। उसकी सारी प्रसन्नता समाप्त हो गई। उसके सारे रंगीन सपने एक दम मिट गये ।। दुलहिन ससुराल पहुंची, उसने मन में अनेक कल्पनाएं संजोई थी, पर पति की सख्त नाराजगी देखकर वह सहम गई, उसने बहुत चिन्तन किया, पर कोई भी कारण उसे ज्ञात न हो सका। दिन पर दिन बीतते चले गये, पर दोनों का दुराव ज्यों का त्यों बना रहा। सेठ और सेठानी ने अनेक प्रयत्न किये, पर कुछ भी सुखद परिणाम नहीं आया। एक दिन Jain Education Internationa Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६ अमिट रेखाए दुःखित हृदय से सेठ ने पुत्र वधु को कहा—बेटी चलो मैं तुम्हें तुम्हारे पीहर पहुँचा दूं, कुछ दिन दूर रहोगी तो संभव है स्नेह का सागर उमड़ पड़े। पुत्र वधु को लेकर सेठ चल दिये। उसी स्थान पर सेठ ने रात्रि विश्राम किया। पुत्र वधु जग रही थी, सेठ को भी अभी तक झपकी नहीं आई थी। पास के पेड़ पर बैठा हुआ कौआ बोला__ यदि समझ है तो सुनो, कौए के उद्गार । दो वृक्षों के बीच में, चरु गड़ें हैं चार ॥ पुत्र-वधु को पुरानी स्मृति ताजा हो गई। वह सारा दृश्य आंखों के सामने नाचने लगा, हो न हो उस रात्री को छिपकर वह दृश्य किसी ने देखा है अतः उसने उसी समय कहा पति का रति न दोष है, है ऐसा ही भाग। जम्बुक ने तो यह किया, अब क्या बाको काग ॥ हे काग। शृगाल की बात को सुनकर तो चार रत्न लिये, उससे तो मेरे पति रुष्ट हो गये और मुझे छोड़ दी, यदि अब मैं सोना लूंगी न जाने क्या होगा, इसलिए मैं सोना लेना नहीं चाहती हूँ। श्वसुर को लगा कि पुत्र वधु किसी से बात कर रही है, इस बात का क्या रहस्य है। उसने पुत्र-वधु से स्पष्टीकरण करने को कहा। पुत्रवधु एक बार तो चौंक उठी, कि मैं तो सोच रही थी कि श्वसुर सो रहे हैं, पर ये तो जग रहे हैं। अब बात Jain Education Internationa Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सन्देह की मुक्ति ४७ को छिपाना ठीक नहीं है, उसने पिछली सारी घटना सुनादी और चारों वे रत्न भी श्वसुर के सामने रख दिये । दो वृक्षों के बीच गड़े स्वर्ण को निकालकर बताया । श्वसुर उसकी प्रतिभा से प्रभावित हुआ, वह सारा सोना लेकर घर आया। पुत्र को सारी बात बतादी। उसका सन्देह दूर हो गया, सन्देह की मुक्ति ही स्नेह का कारण है। Jain Education Internationa Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ andir सुयोग्य पुत्र वसिट्टक पिता का परम भक्त था। उसकी माँ बाल्यकाल में ही मर चुकी थी। पिता वृद्ध हो गये थे। वह रात दिन पिता की सेवा में लगा रहता, समय मिलने पर श्रम करके कुछ कमा लाता जिससे दोनों आनन्द से रहते। एक दिन वृद्ध ने कहा-पुत्र । कमाने और संभालने का कार्य एक साथ नहीं हो सकता, अतः मैं बहूरानी लाना चाहता हूँ जिससे वह घर संभाल लेगी और तुम अच्छी तरह से कमा सकोगे। पुत्र ने कहा-पिताजी ! आप चिन्ता न करें, मैं यह दोनों कार्य एक साथ कर लूगा । पर पिता न माना और पुत्र का विवाह एक कन्या के साथ कर दिया। वह रूप में तो सुन्दर थी, पर स्वभाव उसका अच्छा नहीं था। वसिट्टक ने घर आते ही उससे कह दिया कि मेरे पिता की सेवा तुम्हें अच्छी तरह करनी है, उनको सेवा में कमी होने पर ठीक न रहेगा। कुछ दिनों तक तो वह प्रेम से सेवा करती रही, पर कुछ दिनों के बाद Jain Education Internationa Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुयोग्य पुत्र उसने सोचा कि पिता पुत्र में कर दूं जिससे कि मैं पति के ४६ इस प्रकार मन-मुटाव पैदा साथ आनन्दपूर्वक रह सकूं । वह जानबूझ कर श्वसुर के साथ ऐसा बर्ताव करने लगी कि जिससे वह परेशान हो गया । जब वह कुछ भी तो कहता वह लड़ने के लिए तैयार रहती । वसिठक के साथ इस प्रकार का बर्ताव करती कि वसिट्ठक को ज्ञात होने लगा कि यह निर्दोष है और पिता की ही गलती है । एक दिन वसिठक ने घर के झगड़े से ऊब कर कहा - प्रतिदिन का यह झगड़ा बहुत बुरा है, पिताजी ज्यों-ज्यों वृद्ध होते जा रहे हैं न जाने उनका व्यवहार ही कैसा होता जा रहा है । तुम्हीं बताओ अब मैं क्या करू । स्त्री ने नमक मिर्च लगाकर कहा- मुझे क्या पूछते हैं । जब से इस घर में आई है तब से एक दिन भी अच्छी तरह नहीं रही हूँ । अब तो ये इतने अधिक वृद्ध हो गये हैं, शरीर में भयंकर रोग भी पैदा हो गए हैं, जिससे वे यहाँ साक्षात् नरक का उपभोग कर रहे हैं । उनके कारण घर भी नरक हो गया है । जहाँ चाहते हैं वहाँ थूक देते हैं । श्रेष्ठ तो यही है कि इन्हें श्मशान में ले जाकर एक गड्डा बना कर गाड़ दो, जिससे वे कष्ट भोग रहे हैं वह भी मिट जायेगा और घर का भी उद्धार जायेगा | वसिठक को पत्नी की बात पसन्द आ गई । उसने कहा बात तो तुम्हारी ठीक है, पर पिता आसानी से Jain Education Internationa Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५० अमिट रेखाएँ घर छोड़ने के लिए तैयार न होंगे । यदि आस-पास के लोग सुनेंगे तो इज्जत मिट्टी में मिल जायेगी । पत्नी ने कहा- आप ऐसा करें कि कल सुबह ही पिताजी से कहें कि अमुक व्यक्ति रुपये नहीं दे रहा है, उसने कहा है कि आप जानेंगे तो वह रुपये दे देगा अतः आप गाड़ी में बैठकर चलें । इससे पिताजी चलने को तैयार हो जायेंगे और उन्हें श्मशान में गड्ढा खोदकर गाड देना । और यहाँ आकर हल्ला मचा देना कि रास्ते में डाकू मिले थे वे धन को लूट कर दादा को पकड़ कर न जानें कहाँ ले गये । इससे आपकी प्रतिज्ञा भी बनी रहेगी । वसिट्ठक ने कहा - वाह, तुम्हारी बुद्धि बड़ी तीक्ष्ण है, तुमने जैसा कहा है वैसा ही करूँगा । माता और पिता की इस बात को उसके सात वर्ष के पुत्र ने सुनी । प्रातः जब वह वृद्ध को लेकर जंगल में जाने लगा, तब बालक ने भी हठ की कि मैं भी चलूंगा । बालक क्या समझता है यह समझकर उसे साथ ले लिया । गाड़ी जब श्मशान में पहुची तो वसिट्ठक पिता-पुत्र को वहीं छोड़कर स्वयं कुदाल - टोकरी लेकर उतर पड़ा और कुछ दूर पर जाकर गड्ढा खोदने लगा। कुछ समय के पश्चात् बालक घूमता- घामता वहीं पहुँच गया जहाँ पर पिता गड्ढा खोद रहा था । पिताजी ! यहाँ पर आलू शक्करकन्द तो नही है फिर आप गड्ढा क्यों खोद रहे हैं । Jain Education Internationa Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुयोग्य पुत्र वसिट्ठक ने बालक समझकर लापरवाही से कहापुत्र ! तुम्हारे दादा जी बहुत ही वृद्ध हो चुके हैं। बीमारी में बहुत कष्ट भोग रहे हैं, उन्हें इसमें गाड़ने के लिए ही गड्ढा खोद रहा हूँ। __बालक ने कहा-पिताजी ! यह तो बहुत ही बुरा कार्य है। दादा जी को जीते-जागते गाड़ देना बहुत बड़ा पाप है। वसिठ्ठक की बुद्धि भ्रष्ट हो रही थी उसने बालक की बात पर ध्यान ही नहीं दिया। कुछ समय के बाद थककर वह विश्रान्ति के लिए एक ओर बैठ रहा। बालक उठा, उसने कुदाली ली और उस गड्ढे के पास ही दूसरा गड्ढा खोदने लगा। वसिट्ठक-पुत्र ! क्या कर रहे हो ? पुत्र-पिताजी जब आप भी वृद्ध होंगे तब आपको भी जमीन में गाढना पड़ेगा इसलिए अभी से गड्ढा खोदकर रखता हूँ, क्यों कि पिता का अनुसरण पुत्र को करना ही चाहिए। मैं कभी भी आपके द्वारा चलाई गई इस प्रथा को टूटने नही दूंगा। वसिट्ठक ने बिगड़ कर कहा–नालायक कहीं का पुत्र होकर मेरा अहित करना चाहता है। बालक-नहीं पिताजी ! मैं तो आपको महान् पाप से उबारना चाहता हूँ। आप स्वयं सोचिए। यह कैसा राक्षसी कृत्य है। Jain Education Internationa Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२ अमिट रेखाएं वसिट्ठक-पुत्र ! मैं अपनी इच्छा से नहीं, पर तुम्हारी माँ के कहने से यह कार्य करने जा रहा हूँ। पुत्र-पिताजी ! गलत बात तो मां की भी नहीं माननी चाहिए । अब भी आपको इस घोर पाप से बचना है।" पुत्र की बात को सुनकर वसिट्ठक में गिरते-गिरते सम्भल गया। वह पिता और पुत्र को गाड़ी बिठाकर पुनः घर की ओर चल पड़ा । वसिट्ठक की पत्नी उस दिन बहुत ही प्रसन्न थी कि आज घर का पाप टल गया। बढिया भोजन बनाकर वह बैठी ही थी कि बुढे को पुनः गाड़ी में आया हुआ देखकर क्रोध से तिलमिला पड़ी। अरे ! तुम तो पुनः इस जिन्दा लाश को घर में ले आये । वसिट्ठक ने कहा-तुम पापिन हो, मैं तुम्हारी एक भी बात नहीं मानूंगा, तुम्हें घर में रहना है तो अच्छी तरह से रहो, वर्ना घर से बाहर निकल जाओ। इतना सुनते, ही वह घर से निकल गई और पास के दूसरे मकान में चली गई। उसे आशा थी कि वसिट्ठक उसे मनाने आयेगा, पर आशा निराशा में परिणत हो गई। दिन पर दिन बीतते गये किन्तु वसिट्ठक नहीं आया । एक दिन पुत्र ने सोचा, मां को बहुत शिक्षा मिल चुकी है ! पिताजी से क्षमा मांग कर घर पर आ जाय तो अच्छा है। उसने उपाय निकाल लिया। उसने पिता से कहा, आप सुबह जोर से कहिएगा कि मैं दूसरा विवाह करने जा रहा हूं, गाड़ी में बैठकर रवाना हो जाइएगा, और शाम को पुनः लौट आइएगा। वसिट्ठक ने पुत्र की Jain Education Internationa Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुयोग्य पुत्र बात को मानकर वैसा ही किया । उसकी पत्नी ने यह बात सुनी, सौत की बात से वह सिहर उठी, यदि वह आ गई तो मेरा-भावी जीवन ही बिगड़ जायेगा। उसने पुत्र को बुलाकर कहा- तुम पिता से कहकर मेरे अपराधों को क्षमा करवा दो, और मुझे पुनः इस घर में बुलालो भविष्य में मैं कभी भी ऐसा कार्य नहीं करूंगी।' पुत्र ने पिता के आने पर कहा-पिताजी। माताजी पुनः यहां आना चाहती है। वे अपने अपराध की शुद्ध हृदय से क्षमा मांग रही है, कैसी भी क्यों न हो आखिर तो मेरी मां है। वसिट्ठक-यदि तुम्हारी इच्छा हो तो बुलाकर ला सकते हो । वह गया, और मां को बुला लाया. उसने पति और श्वसुर से क्षमा याचना की। सुयोग्य पुत्र के कारण पुनः उजडा हुआ घर बस गया। सुयोग्य पुत्र ने जहाँ अपने पिता को पाप के गर्त में गिरते हुए बचाया, वहां अपनी पतित माता का भी उद्धार किया। Jain Education Internationa Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १ अमर फल धारा नगरी में एक गरीब ब्राह्मण रहता था। उसने अपनी दरिद्रता को दूर करने के लिए अनेक प्रयत्न किये, पर किसी में भी सफलता प्राप्त न हुई। उसने तीन दिन तक अन्न जल ग्रहण किये बिना ही एकाग्रचित्त से देवी की उपासना की। तीसरे दिन देवी ने साक्षात् दर्शन दिये। ब्राह्मण फूला नहीं समाया उसने देवी से दरिद्रता मिटाने का अनुरोध किया। देवी ने स्पष्ट शब्दों में कहा -- भूदेव ! तुम्हारे भाग्य में सम्पत्ति नहीं किन्तु विपत्ति लिखी है, किसी का भी सामर्थ्य नहीं कि उसे कोई भी बदल सके। ब्राह्मण एकदम निराश और हताश हो गया। उसने दीन स्वर में कहा तो क्या मेरी तीन दिन की तपस्या भी व्यर्थ हो जायेगी। देवी ने साहस बंधाते हुए कहा-इतने घबराओ मत, तुम्हारे, भाग्य में कुछ सफलता भी लिखी है। ब्राह्मण में आशा का संचार हो गया। उसने कहाजो लिखा है वह दीजिए। Jain Education Internationa Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अमर फल ५५ देवी ने ब्राह्मण के हाथ में एक फल रखते हुए कहायह साधारण फल नहीं है। यह अमर फल है, इसे खाने पर व्यक्ति सदा के लिए अमर हो जाता है। देवी अन्तान हो गई। ब्राह्मण को धन चाहिए था, पर धन के स्थान पर अमर फल मिला! उसने उसे खाने की तैयारी की पर दूसरे ही क्षण उसे विचार आया, यदि अमर फल खाकर अमर बन गया तो जीवन भर दरिद्रता में फंसा दुःख भोगता रहूँगा। इससे तो श्रेष्ठ यही है परोपकारी राजा भर्तृहरि को समर्पित कर दं। जिससे जनता का भी भला होगा, राजा प्रसन्न होकर मुझे धन देगा, जिससे मेरी दरिद्रता मिट जायेगी। उसने उसी समय राज-सभा में जाकर वह फल राजा को अर्पित किया। भत हरि ने विनोद करते हुए कहाब्राह्मण देवता ! मुझे तुम्हें दक्षिणा देकर सम्मान करना चाहिए था, पर आप तो उलटा मुझे उपहार दे रहे हैं। ब्राह्मण ने कहा-राजन् । यह साधारण फल नहीं है। तीन दिन की उपासना व साधना के पश्चात् देवी ने प्रसन्न होकर इसे मुझे दिया है । इसका नाम अमर फल है ! ज्यों हो मैं इसे खाने बैठा, त्यों ही मेरे मन में यह विचार आया कि मैं गरीब हूँ फिर पृथ्वी का भार क्यों बनू । आपके समान परोपकारी सम्राट् खायेंगे तो जनता का भी दीर्घकाल तक कल्याण होगा। अतः इसे स्वीकार कर मुझे आप अनुगृहीत करें। Jain Education Internationa Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अमिट रेखाए राजा भर्तृहरि ने उस फल को ग्रहण किया और उसके बदले में ब्राह्मण को भरपूर दक्षिणा देकर उसको आर्थिक संकट से सदा के लिए मुक्त कर दिया । भर्तृहरि महलों में जाकर ज्यों ही उसे खाने के लिए तत्पर हुए त्यों ही उन्हें विचार आया कि इस फल को खाकर मैं अमर हो जाऊंगा तो मेरी धर्मपत्नी जिसके अभाव में एक क्षण भी मुझे अच्छा नहीं लगता है ! यदि वह नहीं रही तो मेरा लम्बा जीवन भी नीरस हो जायेगा । अतः इसे मैं अपनी प्रियरानी को अर्पित कर दूँ जिससे वह दीर्घकाल तक जी सके ५६ भर्तृहरि को अपने जीवन की अपेक्षा रानी का जीवन अधिक मूल्यवान प्रतीत हुआ ! वह फल लेकर रानी पिंगला के पास पहुंचा। और अपने हृदय के अपार अनुराग को प्रदर्शित करता हुआ वह फल रानी को प्रदान किया । रानी फल को पाकर फूली न समाई । राजा राज सभा में चला गया। रानी अन्य व्यक्ति में अनुरक्त थी । उसने सोचा अमर फल खाकर में अमर बन जाऊंगी, पर मेरा प्रेमी हस्तिपालक यों ही रह जायेगा। रानी को अपने जीवन की अपेक्षा हस्तिपालक का जीवन अधिक महत्वपूर्ण लगा । उसने उसी समय हस्तिपालक को बुलाया और अपने स्नेह को दर्शाती हुई वह फल उसे भेंट किया । हस्तिपालक बहुत ही प्रसन्न हुआ । और उस फल को लेकर अपने घर आ गया । हस्तिपालक के आसक्ति का केन्द्र रानी नहीं किन्तु Jain Education Internationa Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अमर फल वहां की प्रसिद्ध गणिका थी। वह रानी से भी अधिक महत्व उसे देता था। उसने अमर फल गणिका को देने का निश्चय किया। वह उस फल को लेकर गणिका के यहाँ गया और मनोविनोद करते हुए उसने अमर फल गणिका को उपहृत किया। दैविक फल को पाकर गणिका की प्रसन्नता का पार न रहा । ___ अमर फल को पाकर गणिका चिन्तन करने लगी कि मेरा जीवन कितना अधम है मेरे कारण कितनों का पतन हुआ है। यदि मैं अमर बन गई तो हजारों व्यक्ति वासना के कर्दम में गिरकर अपने जीवन को बर्बाद करेंगे ! इसलिए यही श्रेयस्कर है महान् परोपकारी सम्राट भर्तहरि को यह फल भेंटकर दू जिससे वे दीर्घकाल तक वह प्रजा का प्रेम से पालन करते रहें। गणिका दूसरे दिन राज सभा मैं फल को लेकर उपस्थित हुई। उसने ससम्मान वह अमर फल राजा को भेंट किया । राजा ने फल को देखते ही पहचान लिया। परन्तु मन में प्रश्न कौंध गया कि पिंगला रानी को दिया गया यह फल गणिका के पास कैसे पहुँच गया। भर्तृहरि ने अनजान बनकर गणिका से पूछा--- यह देवनामी श्रेष्ठ फल तुम्हारे पास किस प्रकार आया । गणिका ने सहज भाव से कह दिया आपका जो हस्तिपालक है वह मेरा प्रेमी है, उसने यह अमूल्य उपहार मुझे दिया है। राजा ने पुरस्कार देकर गणिका को विदा किया। Jain Education Internationa Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८ अमिट रेखाएं राजा ने अपने विश्वस्त अनुचर के द्वारा एकान्त में हस्तिपालक को बुलाया और अमर फल के सम्बन्ध में पूछा, हस्तिपालक के तो भय से रोंगटे खड़े हो गए। मृत्यु के भय से उसने सारी बात राजा के सामने स्पष्ट रूप से रख दी। उसे सुनते ही भर्तृहरि की आंखें खुल गई। उनके मुंह से सहसा निकल गया यां चिन्तयामि सततं मयि सा विरक्ता साप्यन्यमिच्छति जनं स जनोन्यसक्तः अस्मत् कृते च परितुष्यति काचिदन्या धिक ता च तंच मदनं च इमां च मां च ? जिस पिंगला को मैं अपनी अनन्या समझता था अरे जिसके पीछे-दीवाना बना हआ था, वह तो अन्य में आसक्त है, वह जिसे अपना समझती थी उसके हृदय में दूसरी का ही निवास था। धिक्कार है मुझे, पटरानी पिंगला को, हस्तिपालक और इस गणिका को। सबसे बढ़कर धिक्कार है मुझे जो विषयों में आसक्त हो रहा हूँ । प्रस्तुत घटना ने राजा भर्तहरि को संसार से विरक्त कर दिया। वे राज्य का परित्याग कर गिरि कंदराओं में पहुंचकर साधना करने लगे। उनकी जीवन गाथा आज भी भारतीय जन मानस में वैराग्य की निर्मल ज्योति जगाती है। Jain Education Internationa Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२ समस्या का समाधान एक युवक था, जिसका जीवन सत्य निष्ठ व परोपकारी था । किन्तु उसके पास सम्पत्ति का अभाव था। वह घर में अकेला था, उसे अकेलेपन का अभाव सदा खटकता था । एक दिन उसने कुलदेवी की उपासना कर गरीबी और अकेलेपन को मिटाने के लिए प्रार्थना की। कुलदेवी युवक की सत्यनिष्ठा परोपकार कर्तव्य परायणता पर मुग्ध हो गई। उसने कहा - पुत्र, तेरी समस्याओं का समाधान एक ज्ञानी पुरुष करेगा जो यहां से चार योजन दूर उत्तर दिशा में रहता है तू उसके पास चला जा | आशा से लगा हुआ युवक वहां से उसी दिशा में चल दिया । वह इतना गरीब था कि वाहन के लिए उसके पास पैसे नहीं थे, और चलने का भी अभ्यास नहीं था । तथापि साहस से वह चल दिया एक योजन भी वह कठिनता से चल सका । इतना थक गया था कि एक कदम भी अब वह नहीं चल सकता था, छोटे से गाँव में एक बुढ़िया की झोपड़ी पर विश्राम लेने के लिए पहुंचा । वृद्धा ने प्रेम से उसका सत्कार किया । Jain Education Internationa Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६० अमिट रेखाए उसके एक रूपवान कन्या भी थी युवक स्नान और भोजन से निवृत्त होकर बुढ़िया के पास बैठा। घर बीती और आप बीती अनेक बातें चलती रही, अन्त में वृद्धा ने युवक से पूछा --- तुम्हारी यात्रा का उद्देश्य क्या है ! युवक ने कहा—मेरी कुछ व्यक्तिगत समस्यायें हैं, कुलदेवी के कहने से ने उनका समाधान करने के लिए ज्ञानो पूरुष के चरणों में जा रहा है। वृद्धा के मुंह पर प्रसन्नता की रेखा चमक उठो, उसने कहा-पुत्र ! मेरी भी एक समस्या है, जिसमें मैं काफी उलझी हुई हूं, तुम मेरी समस्या का समाधान ज्ञानी पुरुष से करना-मेरी यह पुत्री है, जो विवाह योग्य हो गई है। जब मैंने इसके सामने विवाह का प्रस्ताव रखा तब इसने मुझे अपनी दृढ़ प्रतिज्ञा बताते हुए कहा --मैं उसी पुरुष के साथ विवाह करूंगी, जो सवा करोड़ की कीमत का बहमूल्य हीरा लाकर मुझे देगा। मैंने अनेक प्रकार से इसे समझाया पर यह अपनी हठ छोड़ती ही नहीं है, तो तू उस ज्ञानी से पूछना कि इसकी प्रतिज्ञा कब पूर्ण होगी। युवक वृद्धा को आश्वासन देकर दूसरे दिन आगे बढ़ा। उस दिन भी वह एक योजन से अधिक न चल सका। विश्रान्ति के लिए उसने इधर-उधर देखा, पर आस-पास में कहीं भी गांव नहीं था, जंगल में एक झौंपड़ी थी, युवक उसी झौंपड़ी में पहुँचा, वहाँ एक सन्यासी जप तप कर रहा था, युवक ने रात्रि में वहाँ रहने की अनुमति माँगी। सन्यासी ने प्रसन्नता से कहा-आप Jain Education Internationa Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समस्या का समाधान निःसंकोच यहाँ रह सकते हैं। सन्यासी के साथ युवक की बात होती रही अन्त में सन्यासी ने कहा-तुम ज्ञानी पुरुष के पास जा रहे हो तो मेरी भी एक समस्या है उसका समाधान करके लाना। वह समस्या यह है कि मुझे बारह वर्ष से अधिक समय हो गया है साधना करते, किन्तु अभी तक मेरा मन एकाग्र नहीं हो पाया है । मेरा मन अत्यधिक बेचैन रहता है। यवक ने सन्यासी को आश्वासन देकर आगे प्रस्थान किया। एक योजन चलने पर वह थक गया, उसने उस दिन एक माली के बगीचे में विश्राम लिया। माली ने भी उसके सामने अपनी समस्या रखते हुए कहा-~-मेरे पिता जब मरणासन्न स्थिति में थे तब उन्होंने मुझे आदेश दिया था कि मकान के उत्तर के कोने में चम्पा का वृक्ष लगाना, यह कह कर उन्होंने आँखें मद ली, मैंने उनके बताए हुये स्थान पर चम्पा का वृक्ष लगाने का अत्यधिक श्रम किया पर वहाँ वृक्ष न लग सका। मेरे हृदय में यह असह्य पीड़ा सता रही है कि मैं पिता की यह छोटी सी इच्छा भी पूर्ण न कर सका। उस ज्ञानी पूरुष से पूछकर मेरी पहेली को सुलझाने का प्रयास करें। युवक माली को आश्वासन देकर प्रातःकाल वहाँ से आगे बढ़ा। एक योजन जाने पर उसे उस ज्ञानी की झौंपड़ी मिल गई। उसके मुंह पर अद्भुत आभा चमक रही थी। युवक प्रथम दर्शन में ही उससे इतना प्रभावित हुआ कि उसका श्रद्धा से उसके चरणों में सिर झुक Jain Education Internationa Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२ अमिट रेखाएं गया। उस ज्ञानी ने आशीर्वाद प्रदान करने के पश्चात् आने का कारण पूछा-नवयुवक ने कहा-आप महान् हैं। आपके दिव्य ज्ञान की प्रशंसा स्वयं कुलदेवी ने की है, कि आपके पास जो भी व्यक्ति जटिल से जटिल समस्या लेकर आता है वह समाधान पाकर प्रसन्नतापूर्वक लौटता है। मेरी भी अनेक समस्यायें हैं, मैं उन समस्याओं के समाधान की आशा लेकर आया हूँ। ज्ञानी पुरुष ने कुछ क्षणों तक युवक को पैनी दृष्टि से देखा, फिर कहा-तुम्हारे कितने प्रश्न हैं ? मैं सिर्फ तीन प्रश्नों से अधिक प्रश्नों का उत्तर नहीं दूंगा। नवयुवक कुछ झिझका। तथापि साहस बटोर कर उसने कहा-भगवन् ! सुझे आपसे चार प्रश्न ही पूछने हैं। एक मेरा स्वयं का है और तीन प्रश्न अन्य व्यक्तियों के हैं जिनका मार्ग में मैंने आतिथ्य ग्रहण किया था। आप मुझ पर विशेष अनुग्रह कर चारों प्रश्नों का समाधान प्रदान करें। यदि एक भी प्रश्न अधूरा रहा ता मैं कठिनाई में फंस जाऊंगा। ज्ञानी पुरुष ने दृढ़ता के साथ कहा- मैं तीन से अधिक प्रश्नों का उत्तर नहीं दूंगा। यदि तुमने अधिक लोभ किया तो हानि को संभावना है। ___ नवयुवक चिन्तित हो गया, युवक को अपनी समस्या भी परेशान कर रही थी, साथ ही तीनों को दिया गया वचन भी वह निभाना चाहता थी। वह अपनी समस्या की तरह उनकी भी समस्या का समाधान चाहता था । Jain Education Internationa Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समस्या का समाधान कुछ क्षणों तक चिन्तन के पश्चात् उसने यह निर्णाय लिया कि मैं अपनी समस्या छोड़ सकता हूँ, पर उनकी नहीं। उसने ज्ञानी के सामने तीनों की समस्याएं रखी, ज्ञानी ने समाधान दिया। नवयुवक वहां से लौट गया एक योजन मार्ग पार करने पर वह माली के घर पहुंचा ! माली ने प्रेम से उसे बिठाया। नवयुवक ने कहा-मैं आपकी समस्या का सही समाधान कर के लाया हूँ। उस ज्ञानी पुरुष ने मुझे बताया कि तुम्हारा पिता बहुत ही चतुर था, जब वह मृत्यु शैय्या पर पड़ा हुआ था, उस समय अनेक लोग आस-पास बैठे थे, वह तुम्हारे से गुप्त बात करना चाहता था, पर लोगों के भीड़-भडक्के में वह न कह सका, उसने तुम्हारे को संकेत में कहा-चम्पक वृक्ष जहां लगाने के लिए कहा उस स्थान पर बहुत सा धन गड़ा हुआ है, तुम केवल ऊपर से खोदते हो । उतनी मिट्टी में वृक्ष लग नहीं सकता जड़े गहराई में जा नहीं सकती, आप जरा गहरा खोदें आपको पर्याप्त मात्रा में धन प्राप्त होगा। माली ने ज्यों ही खुदाई की त्योंही दस-दस सहस्र स्वर्ण मुद्राओं से भरे हुए चार कलश निकले । माली के हर्ष का पार न रहा। नवयुवक की ओर मुड़कर माली ने कहा-आपने मुझे धन दिखाकर मेरे पर महान उपकार किया है, यदि आप यहां पर नहीं आते तो मुझे यह कोष प्राप्त नहीं हो सकता था, आप इस धन को ले जाइए, पर युवक उस धन पर तनिक मात्र भी नहीं ललचाया। किन्तु माली के Jain Education Internationa Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अमिट रेखाए अत्यधिक आग्रह पर युवक को बीस हजार मुद्राएं लेनी ही पड़ी। एक दिन रुक कर युवक आगे बढ़ा बीस हजार मुद्राएं उसके साथ ही थीं। एक योजन मार्ग पार करने पर उसे सन्यासी की कुटिया मिली। सन्यासी ने आते ही पूछाबताओ मेरी समस्या का क्या समाधान लाये। युवक ने कहा - सन्यासी बनने के पूर्व आप राजा थे, आपने सन्यास तो ग्रहण किया पर मन में यह संशय बना रहा कि भविष्य में क्या होगा, इस दृष्टि से सवा करोड़ का कीमती हीरा अपने पास छुपा रखा है, उस हीरे के कारण आपकी साधना में एकाग्रता नहीं आ पाती है। ___ सन्यासी ने सुना, अध्यात्म की भूख उसमें तीव्र लगी हुई थी। हीरे की ममता छूट गई। उसने उसी समय हीरे को निकाल कर उसे दे दिया। और स्वयं ध्यान में दत्तचित्त हो गया। युवक आगे बढ़ा और तीसरे दिन बुढिया के घर पर पहुंचा । बुढिया उसकी प्रतीक्षा कर रही थी। बेटा! ज्ञानी पुरुष से मेरी पुत्री के सम्बन्ध में पूछा क्या ? युवक ने कहा-मां तुम्हारी बात को मैं किस प्रकार विस्मृत कर सकता था। ज्ञानी पुरुष के संकेतानुसार तुम्हारा मनोरथ अभी पूर्ण हो जायेगा, अपनी पुत्री को शीघ्र ही यहां बुला लाओ । बुढिया ने शीघ्र पुत्री को बुलाया। युवक ने सवा करोड़ की कीमत का चमचमाता हीरा उसके हाथ पर रखा। वह उस बेशकीमती हीरे को पहचान गई वह Jain Education Internationa Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समस्या का समाधान ६५ उसी समय उसके चरणों में अपनी प्रतिज्ञा के अनुसार समर्पित हो गई। बुढिया ने उसका विवाह कर दिया। युवक धन और पत्नी को लेकर अपने घर पहुँच गया। युवक की गरीबी ओर अकेला पन सदा के लिए समाप्त हो गया। उसने ज्ञानी पुरुष के सामने भले ही अपनी समस्या नहीं रखी पर, अन्य तीन व्यक्तियों की समस्या को उसने प्रमुखता दी, जिससे उसकी समस्या का भी समाधान हो गया। Jain Education Internationa Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनमोल जीवन : कौड़ी का मोल एक राजा प्रातःकाल जंगल में घूमने के लिये गया । वह रास्ता भूल गया। उसे भूख प्यास सताने लगी। वह एक अरण्यवासी की झौंपड़ी पर जा पहुँचा, भील ने उसका हृदय से स्वागत किया, राजा प्रसन्न हो गया। विदा होते समय राजा ने कहा-मैं तुम्हारी सज्जनता मानवतापूर्ण सद्व्यवहार से प्रभावित हूँ। मैं अपना चन्दनबाग तुम्हें अर्पित करता हूँ जिससे तुम्हारा जीवन आनन्दमय व्यतीत होगा। वनवासी चन्दनवन को प्राप्त कर प्रसन्न हो गया, किन्तु चन्दन का क्या महत्त्व है, उससे किस प्रकार लाभ उठाया जा सकता है, उसका उसे ज्ञान नहीं था। वनवासी ने सोचा इसके कोयले बनाकर शहर में बेचे जायें जिससे अच्छा लाभ होगा। वह चन्दन की लकड़ी के कोयले बनाकर बेचने लगा, और किसी भी प्रकार से अपना गुजारा करने लगा। एक-एक करके सारे वृक्ष समाप्त हो गये । एक पेड़ बच गया। वर्षा का समय था, उससे कोयला न बन Jain Education Internationa Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनमोल जीवन : कोड़ी का मोल सका, उसने गुजारे के लिए लकड़ी को बेचने का निश्चय किया। लकड़ी का गट्ठा लेकर वह एक सेठ के यहाँ पहुँचा, सेठ बड़ा ही भला था, उसने वनवासी को कहा —यह लकड़ी साधारण नहीं बढ़िया चन्दन की है। उसने उसके बदले में काफी धन दिया। और कहा कि तम्हारे पास और भी इस प्रकार की लकड़ी हो तो वह लेते आना। वनवासी अपनी ना समझी पर पश्चाताप करने लगा। उसने बहुमूल्य चन्दनवन को अत्यधिक कम कीमत में कोयला बनाकर बेच दिया था। एक समझदार व्यक्ति ने उसे सान्त्वना देते हुए कहा-मित्र ! अब आँखों से आँसू बहाकर पश्चाताप न करो सारा संसार ही तुम्हारी तरह ही है। जीवन के अनमोल क्षण चन्दन की लकड़ी के समान बहुमूल्य है पर विकार और वासना के कोयले बनाकर उसे बर्वाद कर रहे हैं । तुम्हारे पास एक वृक्ष बचा है उसका सद्उपयोग करो, तुम नौनिहाल हो जाओगे। Jain Education Internationa Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४ क्या मानव जीवन गरीब है ? एक युवक महात्मा टाल्सटाय के पास पहुँचा । उसने उनसे निवेदन किया कि वह अत्यधिक गरीब है । उसके पास एक पैसा भी नहीं है जिससे वह बहुत ही दुःखी है । टाल्सटाय ने पैनी दृष्टि से युवक को देखते हुए कहा - क्या तुम्हारे पास कुछ भी सम्पत्ति नहीं है ? युवक ने निराश होते हुए कहा- बिल्कुल नहीं है । टाल्सटाय ने कहा- मैं एक ऐसे व्यापारी को जानता हूँ । जो मानव के नेत्र खरीदता है । दोनों नेत्र के वह बीस हजार रुपये देगा, क्या तुम उनको बेचोगे ? युवक ने कहा- नहीं, बिल्कुल नहीं। मैं कभी भी अपनी आँखें बेच नहीं सकता । वह हाथ भी खरीदता है, दोनों हाथों के वह पन्द्रह हजार देगा, हाथ तो बेचोगे न ! इन हाथों को भी कभी बेच नहीं सकता । अच्छा, वह पैर भी खरीदता है, दोनों पैरों के दस Jain Education Internationa Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्या मानव गरीब है ? हजार देगा, इनको बेच दो, तुम्हारी गरीबी दूर हो जायेगी। युवक भयभीत होगया, उसने कहा-आप यह क्या कह रहे हैं। ___मैं तुम्हारे को अच्छी सलाह दे रहा हूँ। तुम अधिक अमीर बनना चाहते हो तो एक लाख में तुम्हारा सम्पूर्ण शरीर को भी ले सकता है । वह व्यापारी मनुष्य के शरीर से कुछ विशिष्ट औषधियाँ बनाता है, तुम्हारे को प्रसन्नता से इतना मूल्य दे देगा। ___टाल्सटाय ने मुस्कराते हुए कहा- युवक को सम्बोधित करते हुये कहा-तुम्हारे पास लाखों की कीमत का शरीर है, फिर भी तुम अपने आपको दरिद्र मानते हो, कितनी अटपटी बात है। इस सम्पत्ति के अक्षय कोष से तुम जो चाहो वह कार्य कर सकते हो, अपने आपको दरिद्र मानना भयंकर भूल है। Jain Education Internationa Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ | आदर्श भावना बंगाल में वैष्णव धर्म का प्रचार प्रसार और विस्तार करने का श्रेय श्री चैतन्य को है। ___ वे एक दिन गाँव को जा रहे थे, मार्ग में एक बहुत बड़ी नदी थी, जो बिना नौका के पार नहीं की जा सकती थी। अन्य यात्रियों के साथ चैतन्य भी नौका में बैठ गये, और नदी की निर्मल धाराओं को देखने लगे। उसी समय एक व्यक्ति ने उनको झकझोरते हुए कहाचैतन्य क्या तुमने मुझे नहीं पहचाना, मैं तुम्हारा बालमित्र गदाधर हैं । आज बहत वर्षों के पश्चात् आपके दर्शन हुए हैं। चैतन्य -मित्र गदाधर ! मैं प्राकृतिक सौन्दर्य सुषमा को निहार रहा था अतः मैंने तुम्हारी ओर ध्यान नहीं दिया। दोनों मित्रों में स्नेहपूर्वक वार्तालाप प्रारंभ हुआ ! अतीत की धुधली स्मृतियां उबुध्य होने लगी। गदाधर ने कहा-मित्र ! तुम्हें स्मरण है न । जब हम गुरुकुल में पढ़ते थे उस समय हम दोनों ने यह प्रतिज्ञा Jain Education Internationa Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श भावना ७१ ग्रहण की थी कि हम अध्ययन पूर्ण होने पर न्याय शास्त्र पर ग्रन्थ लिखेंगे। क्या वह तुम्हारी प्रतिज्ञा पूर्ण हो गई, या तुम्हारी स्मृति में ही वह बात नहीं रहो। चैतन्य मित्र ! मैं उस प्रतिज्ञा को नहीं भूला, मैंने न्यायशास्त्र पर एक ग्रन्थ लिख दिया है । वह ग्रन्थ आज मैं अपने साथ ही लेकर आया हूँ, तुम उसे देखलो और उसका भाषा आदि की दृष्टि से जो भी परिष्कार करना चाहो, सहर्ष कर दो। गदाधर ने मोती के समान चमचमाते हुए सुन्दर अक्षरों में लिखे हुए ग्रन्थ के दो चार पृष्ठ उलटे कि सहसा उसका मुख कमल मुरझा गया ! उसने ग्रन्थ को नीचे रख दिया। चैतन्य-मित्र ! क्या बात है ! क्या ग्रन्थ अशुद्ध है ? या इसमें त्रुटियां रह गई हैं ? तुम्हारा चेहरा इसे देखकर म्लान क्यों हो गया। तुम्हें स्मरण है न । विद्यार्थी जीवन में तुम मेरे से कभी भी कोई भी बात छिपा कर नहीं रखते थे। जो भी होता उसे साफ-साफ मुझे बता देते थे, पर आज अपने हृदय के उद्गारों को क्यों छिपा रहे हो। गदाधर की आँखें आंसुओं से गीली हो गई। उसने रुंधे कंठ से कहा-मित्र मैं अधम ही नहीं, महा अधम है। मुझे अपने प्यारे मित्र की शानदार कृति को देखकर प्रसन्न होना चाहिए था, और तुम्हें इसके लिए बधाई देनी चाहिए थी पर मैं वैसा नहीं कर सका, उसका कारण है कि मैंने भी न्यायशास्त्र पर अपनी प्रतिज्ञा के अनुसार एक ग्रन्थ Jain Education Internationa Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७२ अमिट रेखाएं लिखा है, मैं सोच रहा था कि विद्वदवर्ग मेरे ग्रन्थ को मान्य करेगा, उसकी मुक्त कंठ से प्रशंसा करेगा परन्तु तुम्हारे ग्रन्थ को देखकर मेरी आशा पर पानी फिर गया। तुम्हारे ग्रन्थ में भाषा का लालित्य है, भावों की सुन्दर और सरस अभिव्यक्ति है और शैली की प्रौढ़ता है। तुम्हारा ग्रन्थ सूर्य के समान है तो मेरा ग्रन्थ नन्हे दीपक के समान है। तुम्हारे इस ग्रन्थ को एक बार विद्वान् देख लेंगे, तो मेरे ग्रन्थ को कोई भी विद्वान् पसन्द नहीं करेगा।" इसी अधम-भावना के कारण ही मेरा चेहरा म्लान हो गया है। __ चैतन्य-मित्र ! तुम चिन्ता न करो, मेरा ग्रन्थ तुम्हारी कीर्ति में बाधक नहीं बनेगा। जिस ग्रन्थ से मित्र के हृदय को कष्ट हो, वह ग्रन्थ ही किस कामका ? लो, मैं तुम्हारे सामने ही इस ग्रन्थ को सरिता की सरस धारा में बहा देता हूँ। गदाधर चैतन्य का हाथ पकड़ने के लिए आगे बढ़ता है । तब तक ग्रन्थ नदी में डूब जाता है। गदाधर ने कहा-मित्र तुमने यह क्या कर दिया तुमने इस प्रकार की अनमोल कृति को भित्र के लिए पानी में डबा कर नष्ट कर दिया । तुम्हारे त्याग की अमर कहानी इतिहास के स्वर्ण पृष्ठों पर चमकेगी और मेरी अधम मनोवृत्ति पर लोग थूकेंगे। चैतन्य-मित्र ! तुम प्रसन्न रहो तुम्हारी प्रसन्नता में ही मेरी प्रसन्नता है। हम दोनों एक ही गुरु के शिष्य हैं। तुम्हारा नाम ही मेरा नाम है, अब तुम्हारी पुस्तक का Jain Education Internationa Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श भावना ७३ अध्ययन करने पर ही न्याय शास्त्र का अध्ययन पूर्ण समझा जायेगा। नौका नदी के किनारे जाकर खड़ी हो गई। दोनों नौका से उतर पड़े। दोनों के मुख कमल खिले हुए थे। दोनों को आत्म-सन्तोष था। Jain Education Internationa Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६ आनन्द कहां ! एक सेठ विदेश से धन कमाकर अपने घर की ओर आ रहा था, मार्ग में उसे एक ठग मिला, उसने सेठ से प्रश्न किया, आप कहां जा रहे हैं । उत्तर में - सेठ ने कहा - मैं धन कमाने के लिए विदेश गया था, वहां पर बारह वर्ष रहा और जितना भाग्य में लिखा था उतना धन कमाकर घर लौट रहा हूँ । धन की बात सुनकर ठग के मुंह में पानी आ गया, उसने सोचा, किसी उपाय से सेठ के पास के धन को ले लेना चाहिए, फिर ऐसा सुनहरा अवसर हाथ न लगेगा । ठग ने मधुर शब्दों में सेठ से कहा - बन्धुवर । आप जिस ग्राम को जा रहे हो उससे दस मील आगे ही मेरा गांव है, मैं भी वहीं जा रहा हूँ । तुम्हारा साथ मिल गया, बड़ी प्रसन्नता है । वार्तालाप करते हुए मार्ग आसानी से कट जायेगा । सेठ भी यही चाहता था कि रास्ते में कोई साथी मिल जाय तो अच्छा है मीठी बातें करते हुए दोनों आगे बढ़ रहे थे । सूर्य अस्ताचल की ओर तेजी से बढ़ रहा था। ठग Jain Education Internationa Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आनन्द कहां ने कहा-संध्या होने जा रही है अब आगे बढ़ना उचित नहीं है। इसी पास की धर्मशाला में हम ठहर जायें तो कितना अच्छा रहेगा, यह धर्मशाला हर दृष्टि से सुरक्षित सेठ ने ठग के प्रस्ताव का समर्थन किया, और वे दोनों उसी धर्मशाला में खा पीकर सो गये। ठग ने विचारा कि कहीं सेठ को मेरी नियत पर सन्देह न हो जाय एतदर्थ वह निद्रा का नाटक करने लगा। सेठ को ज्यों ही गहरी निद्रा आई त्योंही वह उठ बैठा। धीरे से सेठ के बिस्तर व जेब को टटोलने लगा। पर उसे एक भी पैसा प्राप्त नहीं हुआ, उसकी सभी आशा निराशा में परिणित हो गई, मुंह लटकाये, करवटें बदलते हुए वह भी सो गया। उषा की सुनहरी किरणे ही मुस्कराने लगी त्योंही वे दोनों अपने लक्ष्य की ओर आगे बढ़े ! वार्तालाप करते हुए ठग ने कहा - बन्धुवर ! तुम बारह वर्ष तक विदेश में रहे हो, वहां से कुछ कमाकर घर लौट रहे हो, या यों ही खाली हाथ लौट रहे हो? सेठ-मित्र ! जितना भाग्य में होता है उतना ही तो मिलता है, मैंने वहां केवल भाड़ ही नहीं झौंका है, कुछ कमाया भी है, जिसे लेकर मैं अपने बाल बच्चों से मिलने जा रहा हूँ। धन की बात को सुनकर ठग के चेहरे पर प्रसन्नता की Jain Education Internationa Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अमिट रेखाएं रेखाएं चमक उठी। सेठ के सामान में कहीं न कहीं धन अवश्य है। संध्या होते-होते वे दूसरी अगली धर्मशाला जा ठहरे। पहले दिन की भाँति ही ठग निद्रा का नाटक कर सो गया। जब सेठ को गहरी निद्रा आई तब वह उठा और बड़ी ही सावधानी से उसने सेठ की जेबें, बिस्तर, व सामान टटोलना प्रारंभ किया, जब घंटों तक मेहनत करने पर भी उसे कुछ नहीं मिला तो उसे विश्वास हो गया कि सेठ के पास कुछ भी सम्पत्ति नहीं है, केवल मुझे धोखा देने के लिए अपनी बढ़ाई बघारता है। मैं इस धूर्त के साथ कैसे फंस गया। तीसरे दिन कुछ चले ही थे कि सेठ का गांव आ गया ठग को लेकर अपने घर पहुँचा, भोजन आदि से निवृत्त होने पर उसने अपने साथ का बिस्तर खोला. बिस्तर में से एक गठडी निकाली जिसमें पांच हजार स्वर्ण मुद्राएं थीं। पांच मुद्राएं उसको देते हए कहा-अभी तुम्हारा गाँव दूर है, खाने का सामान ले लेना ओर साथ ही अपने बाल-बच्चों के लिए भी कुछ वस्तुएं खरीद लेना । ठग निर्मिमेष दृष्टि से उस गठरी को देखने लगा, उसे विश्वास ही नहीं हो रहा था कि यह क्या हो गया, जिस गठरी को मैं दो रात से ढूंढता रहा, मुझे नहीं मिली, आज यह कहां से आ गई ? ठगसेठजी ! आप मुझे नहीं पहचानते हैं कि मैं कौन हैं। आपको सुनकर आश्चर्य होगा कि दूसरों के धन का अपहरण करना ही मेरा एक मात्र व्यवसाय है। आपके Jain Education Internationa Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आनन्द कहां? ७७ साथ इसी कारण से आया था, मैंने दो रात तक इस गठरी को ढूंढा, पर वह मुझे कहीं भी उपलब्ध नहीं हुई। अब आप अपने घर आ गये हैं, अतः आपको अब कोई खतरा भी नहीं है, कृपया बताइये इसे आप रात में कहां रखते थे। सेठ ने मुस्कराते हुए कहा-इस रहस्य का उद्घाटन मैं तभी करूंगा जब आप यह प्रतिज्ञा ग्रहण करें कि मैं भविष्य में किसी के धन का अपहरण नहीं करूंगा। ठग ने जब प्रतिज्ञा ग्रहण की तब सेठ ने कहा-प्रथम दर्शन में ही मुझे यह अनुभव हो गया था कि आप किस प्रकार के व्यक्ति हैं। मैंने सोचा-तुम रात भर मेरी सारी वस्तुएं संभालोगे, किन्तु अपनी वस्तुएं नहीं देखोगे धन की अन्वेषणा के लिए रात भर जागते रहोगे अतः दूसरा कोई चोर भी नहीं आ सकेगा, इसलिए मैं यह धन की गठरी जब तुम इधर-उधर पेशाब आदि के लिए जाते तो मैं धीरे से तुम्हारे सिरहाने के नीचे रख देता था। रात में यह पोटली तुम्हारे पास ही रही थी, पर तुम्हारा ध्यान उधर गया ही नहीं। ठग के आंखों में आँसू आ गये, हाय जो धन मेरे ही पास था उसे मैंने तुम्हारे पास हूँढा । आज का मानव भी उस ठग की भांति भौतिक पदार्थों में सुख की अन्वेषणा कर रहा है पर वह आनन्द बाहर नहीं अपने अन्दर ही है। Jain Education Internationa Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७ । कलाकार की आलोचना एक कलाकार मूर्तिकला में निपुण था। उसके यथार्थवादी चित्रण को निहार कर दर्शक आश्चर्य चकित हो जाता था। वह अपने युग का सर्वश्रेष्ठ कलाकार था। वह जवानी को पार कर बुढ़ापे में प्रविष्ट हो रहा था। उसकी बढ़ती हुई वृद्धावस्था को देखकर उसके स्नेहीजनों को चिन्ता सताने लगी । उन्होंने अपने हृदय की व्यथा कलाकार के सामने प्रस्तुत की। कलाकार ने कहा-आप क्यों चिन्ता कर रहे हैं ! उन स्नेहीजनों ने कहा-यमराज जब आता है तो वह न कलाकार को देखता है और न साहित्यकार को ही। नेता और अभिनेता का भी वह भेद नहीं करता है। उसकी स्मृति मात्र से ही सिहरन होने लगती है। कलाकार खिलखिला कर हंस पड़ा, उसने कहा-मैं अपनी कला कौशल से यमराज को भी चकमा दे सकता हूँ। वह मुझे सुगमता से नहीं ले जा पायेगा। लोगों ने प्रश्न किया-वह किस प्रकार हो सकता है। Jain Education Internationa Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कलाकार की आलोचना ७६ कलाकार ने सगर्व कहा-मैं अपनी दस मूर्तियां बनाऊंगा, और जब यमराज आयेगा, तो मैं झठ से उन मर्तियों के बीच छिप जाऊँगा। वह यथार्थ और मर्ति का भेद नहीं कर सकेगा और मेरा बाल भी बांका नहीं होगा। लोगों को विश्वास नहीं हआ परन्तु कलाकार को पूर्ण विश्वास था कि उसकी कला कभी भी निरर्थक नहीं हो सकेगी। वह मूर्ति-निर्माण में जुट गया। उसने दस मूर्तियाँ बनाई। और एक नूतन कक्ष में उन्हें स्थापित कर दी और स्वयं उसमें जा बैठा । दर्शक यह भेद नहीं कर सके कि मूर्तियां कौन है और कलाकार कौन है। कलाकार अपनी बुद्धि-कौशल पर फूला नहीं समा रहा था। एक दिन वह मूर्तियों के बीच में बैठा हुआ था कि यमराज आ गया। कलाकार ने यमराज को पहचान लिया । कलाकार निस्तब्ध बैठा रहा लम्बे समय तक गहराई से देखने पर भी यमराज पहचान न सका कि कलाकार कौन है और मूर्ति कौन है। यमराज ने बुद्धिमता से काम लिया। उसने कहा-कैसा मूर्ख कलाकार है जो इन सभी मूर्तियों को भी एक सदृश नहीं बना सका। किसी की नाक सीधी है, किसी की टेढी है. किसी की मोटी है तो किसी की पतली है। कलाकार ने ज्यों ही अपनी कटु आलोचना सुनी त्योंही वह वहीं बैठा चीख उठा कि मेरी कला को कौन Jain Education Internationa Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८० अमिट रेखाएं चुनौती देता है। यमराज ने उसका गला दबोचते हुए कहा-मैं जानता था कि असली कलाकार अपनी कला की आलोचना कभी सुन नहीं सकता। इसी दृष्टि से मेरा यह उपक्रम था । अच्छा चलो अब मेरे साथ । कलाकार अब क्या करता, उसे उसके साथ जाना ही पड़ा। Jain Education Internationa Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बादशाह की रामायण प्रातःकाल का समय था। एक बादशाह अपने वजीर के साथ घूमने के लिए जा रहा था। मार्ग में एक व्यास जी कथा कर रहे थे। हजारों लोग बैठे हुए कथा का आनन्द ले रहे थे। व्यास जी के कथा कहने का ढंग इतना निराला था कि बात-बात में हंसी के फव्वारे छूट रहे थे, लोग प्रसन्नता से झूम रहे थे। बादशाह ने पूछा-वजीर जी ! यहां पर कथा किसकी हो रही है ? वजीर-जहाँपनाह ! अयोध्या के राजा राम और सीता की कथा कही जा रही है। ___ बादशाह को बहुत ही बुरा लगा कि मेरे राज्य में मेरी कथा न करके लोग दूसरों की कथा करते हैं । बादशाह ने, उसी समय व्यास जी को बुलाया और कहा देखना अब से राजाराम की कथा न सुनाकर मेरी कथा सुनाया करो। जैसी सीता राम की कथा है वैसी हबह मेरी भी कथा लिख दो। Jain Education Internationa Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अमिट रेखाएं व्यास पूरा घाघ था। उसने कहा-जहांपनाह ! मैं ऐसी बढ़िया कथा लिख दूंगा कि लोग रामायण को पढना भूल जायेंगे। पर इसके पारिश्रमिक के रूप में मुझे ग्यारह हजार रुपये चाहिए। बादशाह ने उसी समय रुपये उसे राजकोष से दिलवा दिये। व्यास, पांच महिने के पश्चात् बादशाह के पास पहुँचा और कहा-जहाँपनाह ! रामायण की तरह ही बादशायण मैंने तैयार कर दी है किन्तु उसमें केवल एक खास बात लिखनी रह गई है कि राम की पत्नी सीता को रावण चुराकर ले गया था, कृपया बतायें कि उस आशिक का नाम क्या था ताकि बादशायण में लिख सक। बादशाह ने सुना और घबराकर कहा -- मुझे ऐसी रामायण नहीं चाहिए। Jain Education Internationa Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परीक्षा अनिलकान्त उज्जैनी का एक बुद्धिमान और सुप्रतिष्ठित सेठ था । घर में धन के अम्बार लगे हुए थे। पत्नी प्रतिभा भी उसी के समान बुद्धिमती थी। किन्तु प्रतिभा की गोद सूनी होने से वह सदा उदास रहती थी। ___अनिलकान्त उसे समझाता कि तुम रात दिन चिन्ता न किया करो, यदि भाग्य में लिखा है तो पुत्र अवश्य होगा। प्रतिभा-नाथ ! बिना पुत्र के यह विराट् वैभव किस काम का? __ अनिलकान्त-तू आंसू न बहा ! आज ही मुझे एक पहुंचे हुए सन्त ने बताया है कि तुम्हारे एक पुत्र होगा। उसी रात प्रातःकाल प्रतिभा को स्वप्न आया कि एक गंभीर गर्जना करते हुआ सिंह ने उसके मुख में प्रवेश किया। प्रतिभा समझ गई कि अब मेरे एक तेजस्वी पुत्र रत्न होगा । अनिलकान्त की बात सत्य सिद्ध हुई। प्रतिभा की Jain Education Internationa Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अमिट रेखाएं प्रसन्नता का पार न रहा । पुत्र को प्राप्तकर सेठानी बांसो उछलने लगी । उसका नाम उसने प्रवीण रखा। प्रवीण बड़ा हुआ, उसका पाणिग्रहण वीणा के साथ सम्पन्न हुआ । एक दिन अनिलकान्त बीमार हो गया । प्रवीण उसके पास जाकर बैठा ! पिताजी अभी बहुत बड़े डाक्टर को बुलालेता हूँ। वह कोई असरदार दवाई दे देगा जिससे स्वास्थ्य शीघ्र ही ठीक हो जायेगा । 2253 ८४ अनिलकान्त - प्रवीण ! अब मैं कुछ ही घंटों का मेहमान हूँ । डाक्टर को बाद में बुलाते रहना । अभी मेरी अन्तिम तीन शिक्षाएं ध्यान से सुनना और उन्हें जीवन में अपनाना । वे शिक्षाएं ये हैं (१) जहाँ पर राजा अपना न हो, अपने प्रति स्नेह न हो वहाँ पर नहीं रहना । (२) जिस स्त्री का अपने प्रति प्रेम न हो जिसमें अर्पण करने की भावना न हो वहां न रहना । (३) जहाँ पर मुनीम अपना न हो वहाँ पर न रहना । प्रवीण -- पिताजी आपको मैं विश्वास दिलाता हूं कि मैं आपकी शिक्षाओं को अपनाऊंगा ज्यों ही उसने यह आश्वासन दिया त्यों ही अनिलकान्त को एक हिचकी आई और सदा के लिए आंख मूंद ली । प्रवीण पर अब सारी घर गृहस्थी की जुम्मेदारी आ गई । उसने गृहस्थाश्रम की गाड़ी को इस प्रकार चलाई कि लोग उसकी बुद्धि से विस्मित हो गए । Jain Education Internationa Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परीक्षा ८५ एक दिन राजा का एक प्यारा और सुन्दर मोर राजमहल से उडता हुआ उसकी हवेली की छत पर आ गया । उसने विचार किया कि अच्छा है राजा की परीक्षा भी कर लू । उसने मोर को एक कमरे में छिपा दिया। राजा मोर न मिलने से चिन्तित हआ, उसने उज्जैनी में यह उद्घोषणा करवाई कि जो मोर लाकर देगा उसे पुरस्कार दिया जायेगा। - प्रवीण राजा के पास गया, राजा को एकान्त में जाकर कहा–राजन् । आपका मोर उडता हुआ मेरे यहाँ आया, उस समय मेरी बुद्धिभ्रष्ट हो गई और मैंने मोर को मार दिया। ये देखिए मोर ने जो हीरे पन्ने आदि के आभूषण पहने थे वे ये हैं। राजा-क्या कहा तू ने मोर मार दिया, अरे दुष्ट यह तूने क्या किया, इसका यही दण्ड है कि तुझे अभी मृत्यु दण्ड देता हूं, मैं तेरे समान हत्यारे का मुह तक देखना नहीं चाहता। जा तेरे अन्तिम समय में मेरी इच्छा है कि एक प्रहर का समय है तू अपने परिवार वालों से मिलके आजा। इतने में सूली भी तैयार हो जायेगी। वह सीधा ही घर पर पहँचा और अपनी पत्नी वोणा से कहा-वीणा ! देख मेरे से एक भयंकर भूल हो गई है, मैंने राजा के प्रिय मोर को मार दिया है। राजा ने मुझे मृत्यु दण्ड की सजा दी है, बता क्या मुझ तू इस मकान में कहीं छिपा सकती है ? इस समय मेरे प्राणों की रक्षा करना तेरा कर्तव्य है। Jain Education Internationa Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८६ अमिट रेखाएं वीणा-अरे क्या कहा आपने ! राजा के मोर को आपने ही मारा है। राजद्रोही को मैं अपने घर में किस प्रकार स्थान दे सकती हूं। आपके कारण मेरे सारे बालबच्चों को मरना पड़ेगा, और मुझे भी। इसलिए आप शीघ्र ही मकान छोड़कर चले जाइए। यदि आप मकान में ही छिपकर रह गये तो मुझे बाध्य होकर अपने परिवार की सुरक्षा के लिए राजा साहब को सूचना करनी होगी। प्रवीण-वीणा ! घबराओ नही, मेरे कारण से तुम सभी को कष्ट हो ऐसा मैं नहीं करूंगा। लो यह मैं चला, तुम घर में आनन्द से रहो। प्रवीण सीधा ही घर से दुकान पर पहुँचा। दुकान पर बड़े मुनीमजी बैठ थे। प्रवीण ने मुनीमजी को एकान्त में लेजाकर कहा, देखिए मेरी बद्धि कुण्ठित हो गई और मैंने राजा के मोर को मार दिया, अब मुझे राजा सूली पर चढ़ाएगा मैं आपसे प्राणों की भिक्षा मांगता हैं, तुम मुझे कहीं छिपा दो। मुनीम ! सेठ साहब । आपने मोर को मारकर बहुत बड़ी भूल की है आप जानते हैं मेरे भी पांच बाल बच्चे हैं, आपके कारण मेरे को राजा के कोप का भाजन बनना पड़े, यह कहां तक उचित है ? मेरे में यह सामर्थ्य नहीं है। आप अन्यत्र पधारिए। प्रवीण --- मुनीमजी । आप चिन्ता न करें, मैं जाता हूँ । प्रवीण ने जहाँ मोर को छिपाया था वहां गया और उसे लेकर राजा के पास पहुंचा। राजा के हाथों में मोर को थमाते Jain Education Internationa Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परीक्षा ८७ हुए बोला, लीजिए, आपका यह प्यारा मोर । मैंने पिता श्री की अन्तिम शिक्षा की परीक्षा के लिए ही यह सारा प्रपंच किया था, आप मोर संभालिए। अब मैं आपका राज्य छोड़कर जा रहा हूं क्योंकि जहां का राजा अपना न हो वहां मुझे नहीं रहना है ! राजा ने बहुत ही इन्कारी की, पर वह न माना। घर आकर वीणा से कहा कि मैंने पिताजी की अन्तिम शिक्षा के अनुसार तुम्हारी परीक्षा ली थी। मैंने मोर नहीं मारा था, वह तो मैं राजा को दे आया हूं। तुम्हारा घर संभालो मैं विदेश जा रहा है। दुकान आदि का संचालन भी तुम्हें ही करना है। वीणा ने बहुत मनुहार की, पर प्रवीण रुका नहीं, मुनीम जी को सचेत कर चल दिया। वह एकाकी महाराष्ट्र में पहुँचा । प्रारंभ में उसने एक सेठ के यहां पर नौकरी की। कुछ पैसा कमाने के पश्चात्, उसने एक स्वतंत्र दुकान खोलली। भाग्य और पुरुषार्थ के कारण उसने कुछ ही दिनों में लाखों की सम्पत्ती कमाली, और एक सुयोग्य कन्या के साथ उसका पाणिग्रहण भी हो गया। वहां के राजा के साथ भी उसका मधुर सम्बन्ध हो गया। एक दिन उसने सोचा की जरा परीक्षा करलू । परीक्षा के लिए उसने एकाएक राजकुमार को अपने मकान में छिपा दिया। तीन दिन तक राजा ने राजकुमार की शोध पहुंचा। पर नौकरी उसने Jain Education Internationa Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अमिट रेखाएं की, पर वह कहीं न मिला, राजा चिन्ता के सागर में गोते लगाने लगा। प्रवीण राजमहल में पहुँचा और राजा को एकान्त में लेजाकर कहा राजन् । मेरे से एक भयंकर अपराध हो गया है । मैंने राजकुमार को मार दिया है, आप मुझे जो भी दण्ड देना चाहें सहर्ष देवें। __ राजा ने बहुत ही गंभीरता से कहा-आप राजपुत्र को कभी भी मारने वाले नहीं हैं, तथापि भावों के वश इस प्रकार हो गया है तो अब चिन्ता न करें और साथ ही यह बात अन्य किसी को न कहें। आप आनन्द से जाइये। प्रवीण घर पर आया, और आँखों से आँसू बहाते हुए उसने पत्नी से कहा-मेरे से एक भयंकर भूल हो गई है, मैंने राजकुमार को मार दिया है। पत्नी ने कहा--पतिदेव ! आप चिन्ता न करें, मेरे रहते हुये आपका बाल भी बांका नहीं हो सकता, यदि राजकर्मचारी आयेंगे तो मैं कह दूगी कि मैंने मारा है। सारा अपराध मेरा है। प्रवीण घर से दुकान पर आया उसने वही बात मुनीम से भी कही । मुनीम ने कहा सेठ साहब! आप चिन्ता न करें मैंने आपका नमक खाया है, जब तक मैं जीवित हूं, वहाँ तक आपको कोई भी कुछ भी कष्ट नहीं दे सकता। मैं राजकर्मचारियों से स्पष्ट शब्दों में कह Jain Education Internationa Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परीक्षा दह दूंगा कि सेठ साहब ! पूर्ण निर्दोष ! पूर्ण निर्दोष है, मेरा अपराध है, मुझे दण्ड दिया जाय । प्रवीण को तो परीक्षा लेनी थी, राजा, पत्नी और मुनीम तीनों परीक्षा में प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण हुये थे । उसने उसी समय राजकुमार को निकाला और राजा साहब को प्रदान कर दिया । और वह वहीं पर जमकर रहने लगा । Jain Education Internationa Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कलियुग का बोध एक समय पांचों पाण्डव उद्यान में क्रीड़ा कर रहे थे। उस समय विचित्र वेष-भूषा को धारण किये हुये, एक आदमी युधिष्ठिर के सामने उपस्थिति हुआ। उसे देखकर युधिष्ठिर को बड़ा आश्चर्य हुआ कि यह आदमी एक साथ ब्राह्मण और यवन के वेश को किस कारण से धारण किए हुये हैं। उस आगन्तुक व्यक्ति ने कहा-महाराज ! मेरी निराली वेष-भूषा को देखकर आप चकित हो रहे हैं, पर आपको आश्चर्य देखना है तो अपने चारों भाइयों को चारों दिशाओं में भेजें, आपको ज्ञात होगा कि संसार में कैसी-कैसी विचित्र बातें हैं। भीम पूर्व दिशा में गये । एक नदी कल-कल छल-छल बह रही थी, चारों ओर हरियाली लहलहा रही थी, हरी-हरी घास बढ़ी हुई थी। उन्होंने देखा एक बारह मुंह का भेसा तेजी से चर रहा है, पर उसका पेट और कमर एक सदृश हो गई है। इतना सारा घास खाने पर भी वह भूखा है। यह तो महान आश्चर्य की बात है । Jain Education Internationa Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कलियुग का बोध अर्जुन को दक्षिण दिशा में भेजा गया था। उन्होंने देखा-एक तत्काल प्रसूता गाय अपनी सद्यःजाता बछड़ी के स्तनों का पान कर रही है। अपनी ही बछड़ी के स्तनों का पान करती हुई, गाय को देखकर अर्जुन चकित हो गये। नकुल को पश्चिम दिशा में भेजा गया। वे उधर बढ़ रहे थे कि सहसा उनके पैर ठिठक गये। उन्होंने देखा-अशोक वृक्ष की शाखा पर एक पिंजरा लटक रहा है। वह पिंजरा सोने से बना हआ है और बहुमूल्य हीरे पन्ने, माणक मोती जवाहरात उसमें जड़े हुये हैं, उस पिंजरे में एक कौआ बैठा हुआ है, और राजहंस सेवक की भांति उसकी सेवा कर रहा है। ___ सहदेव को उत्तर में जाने का निर्देश किया गया था । जब वह उत्तर दिशा में अपने कदम बढ़ा रहा था। एक स्थान पर उसकी आँखे विस्मय से विस्फारित हो गई। वहां परस्पर में सटे हुये तीन कंड थे। एक मध्य में था और दो कुण्ड उसके अगल-बगल में थे। अगल-बगल के कुण्डों में से लहरें उठती और लहरों के माध्यम से एक कुण्ड का पानी दूसरे कुण्ड में गिरता, किन्तु बीच के . कुण्ड में एक बूद भी नहीं गिरती थी। चारों भाई युधिष्ठिर के पास पहुँचे और उन्होंने विस्तार के साथ में अपनी आश्चर्य की कथा उन्हें सुनाई। Jain Education Internationa Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अमिट रेखाएं उसी समय विचित्र - वेष-भूषा धारी पुरुष ने कहामहाराज ! जरा आप भी मेरे साथ चलिये मैं आपको एक बहुत ही विचित्र दृश्य बताता हूँ । युधिष्ठर उनके साथ गये, उन्होंने देखा - एक आदमी के सिर पर जूते बंधे हुये हैं । वह एक घड़े को उठाता है और उसके पानी को छह घड़ों में डालता है तो वे छट्टों घड़े भर जाते हैं, और दूसरी बार वह छहों घड़ों को सातवें घड़े में उडेलता है तो भी वह सातवां घडा नहीं भरता है । युधिष्ठर hi यह बात बड़ी आश्चर्यकारी लगी । ६२ देखते ही देखते वह व्यक्ति दिव्य देव रूप में प्रकट हुआ. उसने कहा जो आपने चित्र विचित्र वस्तुयें देखी हैं उसका हाल इस प्रकार है आपने प्रथम भैंसा देखा था जो बारह मंहों से चरते हये भी उसका पेट खाली था । इसका रहस्य है कि कलियुग में राज्य के अधिकारी चारों ओर से रिश्वत लेंगे. तथापि सन्तुष्ट नहीं होंगे । सद्यः प्रसूता बछडी के स्तनपान करने की बात इस बात की प्रतीक है कि कलयुग में माता-पिता अपनी लडकी के पैसे लेकर अपनी जिन्दगी का निर्वाह करेंगे । पैसे के लिये अपनी लडकी का विवाह रूग्ण व वृद्ध व्यक्तियों के साथ करने में हिचकिचायेंगे नहीं । स्वर्ण पिंजरे में कौआ बैठा है और राजहंस उसकी सेवा कर रहा है इसका तात्पर्य है कि कलयुग में निम्न व्यक्ति राज्य करेंगे और उत्तम पुरुष उनकी सेवा करेंगे । Jain Education Internationa Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कलियुग का बोध अगल-बगल के कुण्डों का पानी एक-दूसरे में गिर रहा है, पर बीच के कुण्ड में एक बूद भी नहीं गिर रही है वह इस बात का द्योतक है कि कलियुग में मानव अपने सन्निकट के बन्धु-बांधवों को छोड़कर, पत्नी का जो दर का सम्बन्ध है उसका भरण-पोषण करेंगे। सिर जूते बांधने का अर्थ है कि पुरुष नारियों का गुलाम होगा और उस पर नारियां शासन करेगी। एक घड़े के द्वारा छह घड़ों का भरना और छह द्वारा एक घड़े की पूर्ति नहीं कर सकेंगे, इसका तात्पर्य कि मातापिता अपने सात-आठ पुत्रों का पोषण करेंगे, किन्तु सभी पुत्र मिलकर भी एक पिता, व माता का पोषण नहीं कर सकेंगे। युधिष्ठिर ने जिज्ञासा प्रस्तुत की कि आप कौन हैं ? उसने कहा-मैं कलयुग हूँ ! कलयुग का रेखाचित्र प्रस्तुत दृश्य करने लिए मैंने ये विविध दृश्य प्रस्तुत किये हैं । और वह आगे बढ़ गया। Jain Education Internationa Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१ | पृथक्-पृथक् सजा बादशाह अकबर अपने सिंहासन पर आसीन थे । वजीर- दरबारी भी अपने-अपने आसनों पर जमे हुए थे । उस समय कोतवाल ने बादशाह के सामने एक अपराधी उपस्थित किया हजुर, इसने चोरी की है ।' बादशाह ने उसे ऊपर से नीचे तक देखा और मधुर स्वर में कहा - 'यह कार्य तुम्हारे सम्मान के योग्य नहीं है, जाओ, अच्छी तरह से रहो । वह चला गया ! दूसरे अपराधी को लाया गया । उसने भी चोरी की थी। बादशाह ने उसे अच्छी तरह देखा, कुछ अपशब्द कहकर कहा- जाओ मेरे सामने से । वह चला गया । तीसरे अपराधी को लाया गया । उसने भी चोरी का ही अपराध किया था, बादशाह ने उसे भी सम्यक् प्रकार से देखा, सिपाही से उसके सिर पर सात जुते लगवाये और धक्के देकर उसे महल से बाहर निकाल दिया । तब चतुर्थ अपराधी को लाया गया। उसने भी चोरी की थी । बादशाह ने उसे भी ऊपर से नीचे तक देखा । Jain Education Internationa Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पृथक्-पृथक् सजा ६५ बादशाह ने आदेश दिया इसका काला मुंह कर के और गधे पर चढ़ाकर शहर भर में घुमाया जाये। चारों अपराधी का अपराध एक था किन्तु दण्ड अलगअलग था। सभी सभासदों के मन में तर्क उठ रहे थे कि यह क्या है। __बादशाह से छिपा न रह सका, बादशाह ने पूछाआप लोगों को कुछ कहना है । सभासद्-जहांपनाह ! आपके न्याय में हमारा पूर्ण विश्वास है, पर हमें यह समझ में नहीं आया कि जब सभी का अपराध एक है तो दण्ड में जमीन आसमान का अन्तर क्यों है ? इस रहस्य को जानने के लिए उन चारों के पीछे एकएक गुप्तचर रखता हूँ। जिससे आपको सही स्थिति का ज्ञान हो सके। दूसरे दिन बादशाह अकबर सिंहासन पर बैठा, चारों गुप्तचरों ने अपनी-अपनी रिपोर्ट उनके सामने पेश की। एक ने निवेदन किया-जहांपनाह ! जिसे आपने यह कहकर विदा किया था कि यह कार्य तुम्हारे सम्मान के योग्य नहीं है। उसने यहां से घर जाकर विष खा लिया और आत्म हत्या करली। जिसे आपने अपशब्द कहकर निकाला था, वह अपना सब सामान लेकर दिल्ली छोड़कर चला गया। __तीसरे अपराधी के सिर पर सात जूते लगवाये थे, वह अपने घर गया और कमरा बंद कर बैठ गया है। Jain Education Internationa Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अमिट रेखाएं चौथा अपराधी जिसका मुह काला किया गया था और गधे पर बिठाकर जब उसे ले जाया गया तब रास्ते में उसे देखने के लिए हजारों व्यक्ति एकत्रित हो गये । कितने ही व्यक्ति उस पर थूकते और कितने ही गालियाँ दे रहे थे। रास्ते में उसकी पत्नी मिल गई, उसने उसे आवाज दी, घर जा और मेरे नहाने के लिए पानी भर देना । थोड़ी सी गालियाँ बाकी हैं उनमें इन दुष्टों को घुमाकर अभी आता हूँ, तू मेरी तनिक मात्र भी चिन्ता न करना । ६६ w सभासदों को ज्ञात हो गया कि इसी कारण बादशाह ने एक अपराध की अलग-अलग सजा दी थी । Jain Education Internationa Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ | कला का देवता एक शिष्य गुरु के पास भिक्षा लेकर पहुंचा और भिक्षापात्र एक-एक कर दिखलाने लगा। गुरु ने कहावत्स ! आज इतना विलम्ब कैसे हुआ ? शिष्य ने विनम्र-वाणी से निवेदन किया-गुरुदेव ! मैं एक ऊंची अट्टालिका में पहुँचा, घर की अधिकारिणी ने मेरा स्वागत किया और एक लडड मुझे दिया। लड्डू लेकर ज्यों ही मैंने वहां से प्रस्थान किया त्यों ही मानस में ये विचार जागृत हुए कि यह लड्डू तो गुरुदेव श्री के काम आयेगा। लड्डू की मनोमुग्धकारी सुवास से मेरा मन विचलित हुआ और मैंने शीघ्र ही वैक्रियलब्धि से बालक का रूप बनाया और लड्डू की कामना से वहाँ पहुँचा, पूर्ववत् ही घर की अधिकारिणी ने एक लड्डू मुझे और दिया। और वहां से चलते समय फिर-विचार आया कि यह लड्डू तो मेरे साथी को मिलेगा, मैं तो यों ही लड्डू से वंचित रहूँगा अतः मैंने तीसरी बार एक वृद्ध का रूप बनाया और लड़खड़ाता हुआ पहुँचा, और तीसरा लड्डू लेकर आया । अतः विलम्ब हो गया" । Jain Education Internationa Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अमिट रेखाएं गुरुदेव ने उपालम्भ देते हुये कहा - वत्स ! यह श्रमण का आचार नहीं है । इस प्रकार लब्धि का प्रयोग करना अनाचार हैं, तुम्हें इसका प्रायश्चित ग्रहण करना होगा । और भविष्य के लिये प्रतिज्ञा । ६८ शिष्य ने कहा -- गुरुदेव ! आप मेरी कला की कद्र नहीं करते हैं । कला का उपयोग करने पर मुझे उपा लम्भ देते हैं ! और प्रायश्चित के लिए कहते हैं ? क्या मेरी कला इसीलिए है ? मैं अब यहां नहीं रहूँगा । गुरुदेव ने शान्त और मधुरवाणी से कहा -वत्स ! उत्तेजित न बनो, जोश में होश को न भूलो। मैं जो कहता हूँ मेरे लिए नहीं, पर तुम्हारे आत्म उत्थान के लिए । अनाचार का यदि प्रायचित ग्रहण नहीं किया जाता है तो वह जीवन में अधिकाधिक विकृतियाँ पैदा करता है अतः तुम्हें आत्मशुद्धि के लिए प्रायश्चित्त लेना ही चाहिये | शिष्य ने कहा- मुझे अब प्रायश्चित नहीं लेना है । साधु की कठोर चर्या मेरे से पालन नहीं होती, मैं जिस घर से भिक्षा लाया हूँ वह नाटकमंडली के उच्च अधिकारी का घर था उसने रूप परिवर्तन करते हुये मुझे देख लिया था, और उसने अपनी प्यारी पुत्रियों से कहा था कि यह साधारण पुरुष नहीं है, यह तो कला का देवता है । तुम दोनों इनकी उपासना करो । यदि तुम प्रेम से इनको आकर्षित कर सकी तो यह तुम्हें चमका देगा, और साथ ही नाटकमंडली भी चमक उठेगी । Jain Education Internationa Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कला का देवता दोनों लड़कियों ने मेरे से अत्यधिक अनुनय किया और कहा-नाथ ! पिता ने आपके चरणों में, हमें समर्पित कर दिया है, आप कहां पधार रहे हैं ? आप यहीं रहें, लड्डूओं की कोई कमी नहीं है । सन्त जीवन आप जैसे सुकुमारों के लिए कठिन है! जब मैंने मना किया तब वे टप-टप आँसू बरसाने लगी, मैंने कहा-रोओ मत, गुरुदेव से पूछ कर आता हूँ, अतः गुरुदेव' मैं जा रहा है, वे मेरी इन्तजार कर रही होंगो । जहाँ कला की परख हो वहीं रहन में आनन्द है । जाते हुये शिष्य को रोकते हुये गुरुदेव ने कहावत्स ! जा तो रहे हो, मैं तुम्हें बांध कर नहीं रोक सकता, पर जाते-जाते एक बात मेरी स्मरण रखना कि 'जिस घर में मद्य-मांस का आहार होता हो वहाँ मत जाना' । शिष्य शीघ्रता में था, हां करके चल दिया। उसने दोनों बालाओं से पूछा-तुम मद्य मांस का आहार तो नहीं करती हो न ! यदि करती हो तो मैं पुनः जाता हूँ। बालाओं ने कहा-नहीं! और वह वहां रह गया। आमोद प्रमोद करते हुये कई वर्ष व्यतीत हो गये। आज उसे नाटक करना था, उसने अपनी दोनों पत्नियों से कहा-आज मैं पुनः नहीं लौट सकंगा। और वह नाटक करने के लिए चल दिया। पत्नियों ने सोचा पति आज तो आयेंगे नहीं अतः चिरकाल की अभिलाषा पूर्ण करलें । उन्होंने खूब मद्य-मांस का सेवन किया और नशे में बेहाल हो गई। मक्खियां भिनभिनाने लगी। इधर Jain Education Internationa Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अमिट रेखाएं वह नाटक करने गया, पर मन लगा नहीं, अतः मध्य में से ही वह लौट आया, परन्तु पत्नियों की यह अवस्था देखकर उसे घृणा हो गई ! पति को देखकर वे घबरा गई, उसने उन्हें फटकारते हुये कहा--तुमने वचन का भंग किया है अतः अब मैं यहाँ नहीं रह सकता, वह उलटे पैरों लौटा। दोनों ने पैर पकड़ लिये, नाथ ! अपराध क्षमा करो, पर वह माना नहीं । उन्होंने कहा-अच्छा, आप नहीं मानते हैं, जाना है तो जायें, पर कुछ आर्थिक व्यवस्था करके जाये । अच्छा, कहकर वह शीघ्र ही नाटक मंच पर आया, हजारों की जनमेदिनी को सम्बोधित कर कहा-आज ऐसा नाटक करूंगा जैसा आज से पूर्व कभी न देखा होगा। नाटक प्रारंभ हुआ। दर्शकों का हृदय उछलने लगा। यह महान् अभिनेता है। इसका नाटक बड़ा ही निराला होता है। वह नाटक कर रहा था सम्राट भरत का। किस प्रकार जन्मते हैं, बड़े होते हैं, राज्य व्यवस्था करते हैं, चक्ररत्न की साधना करते हैं, आरीसा के भव्य-भवन का निर्माण कराते हैं और वस्त्र आभूषणों से सुसज्जित होकर शीश भवन में पहुँचते हैं। शीश भवन को निहारते हुए हाथ की अंगूठी गिरती है। तभी मन में चिन्तन की चिनगारियाँ उछलने लगी, अरे ढोंगी ! कहाँ तू और कहाँ भरत चक्रवर्ती ! कहाँ तेरा निकृष्ट जीवन और कहाँ उस महापुरुष का जीवन ! कहाँ वह राजर्षि जो कमल की तरह निर्लिप्त और कहां तू वासना का गुलाम ! उस महा Jain Education Internationa Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कला को देवता १०१ पुरुष की नकल करते हुये तुझे लज्जा नहीं आती ? अन्तर चेतना जाग्रत हुई, आभूषण उतारते हुये आत्म-मंथन चला, आत्मज्योति जागृत हुई । दर्शकों ने धन के अम्बार लगा दिये ! पर वह उसमें उलझा नहीं । केवलज्ञान और केवलदर्शन और अपार आत्म-वैभव उसे प्राप्त हो गया था। वह अब निहाल था, दर्शक यह देखकर अवाक् थे। Jain Education Internationa Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३ पावन व्रत आचार्य प्रवर प्रवचन कर रहे थे। आत्मा को मांजने के सुन्दर साधन बतला रहे थे । आत्मा मलीन क्यों बनी ? वे उन कारणों पर प्रकाश डाल रहे थे । श्रोता झूम-झूम कर व्याख्यान श्रवण का आनन्द ले रहे थे । I प्रवचन समाप्त हुआ । जनता चली गई ! तब एक युवक आचार्य के पास आया । नमस्कार कर आचार्य श्री के चरणों में निवेदन किया - गुरुदेव ! आपने अभी अपने पीयूष वर्षी प्रवचन में फरमाया है कि 'आत्मा' चन्द्र के समान है । चन्द्र की चारु चन्द्रिका राहु से मुक्त होने पर ही छिटकती है । जब तक वह राहु के पाश में आबद्ध रहेगा तक तक चन्द्रमा का चमचमाता हुआ प्रकाश संसार को दृष्टिगोचर नहीं होगा । शुक्ल पक्ष में राहु का विमान प्रतिदिन हटता रहता है जिससे प्रतिपदा से द्वितीया और द्वितीया से तृतीया की किरणें बढ़ती रहती हैं । पूर्णिमा का चाँद पूर्णकला से युक्त होता है । आत्म चाँद पर भी कर्मों का राहु लगा हुआ है जिससे Jain Education Internationa Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पावन व्रत उसका आलोक अच्छन्न है। ज्यों ज्यों वह अत्याचारअनाचार, भ्रष्टाचार दुराचार और व्यभिचार से मुक्त होता जाता है, त्यों-त्यों उसकी ज्योति अधिकाधिक जगमगाती है, मैं आत्म ज्योति को विकसित करने के लिए शुक्ल पक्ष के चन्द्र की भाँति आगे बढ़ना चाहता है। चाँद जैसे अपनी चंचल किरणे बिखेरेगा वैसे मैं अपने आत्मआलोक की। __ आचार्य ने मुस्कराते हुए पूछा-वत्स, तुम्हारा क्या अभिप्राय है ? मैं शुक्ल पक्ष में सदाचार मय जीवन व्यतीत करना चाहता हूँ, पूर्ण ब्रह्मचर्य का पालन करना चाहता हूँ, युवक ने अपनी बात का स्पष्टीकरण करते हुए कहा। वत्स ! प्रतिज्ञा ग्रहण करने में शीघ्रता अपेक्षित नहीं हैं । तलवार पर चलना सरल है किन्तु ब्रह्मचर्य के महामार्ग पर चलना कठिन है ? जिस मार्ग पर चलते समय ज्ञानियों, ध्यानियों और तपस्वियों के भी कदम लड़खड़ा जाते हैं। वासना कोकिल कुहुक कुहुक कर अन्तर्मानस में गुदगुदी पैदा करता है। उस समय प्रतिज्ञा का भंग न करना वीरता है, स्वीकृत संकल्प का परित्याग न करना धीरता है, साहस है-आचार्य श्री ने कहा। भगवन ! मैंने इस पर गंभीरता से सोचा है । विचारा है और उसके पश्चात् ही अतमानस की बात आपके समक्ष प्रकट की है....."आत्मा बालक नहीं है, दुर्बल नहीं Jain Education Internationa Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०४ अमिट रेखाएं है। उसमें अनन्तशक्ति है सामर्थ्य है। मैं आपको पूर्ण विश्वास दिलाता हैं कि भोगों की चकाचौंध में कृत संकल्प से विचलित नहीं होऊंगा–युवक ने विनम्र निवेदन किया। युवक की प्रशस्त भावना को देखकर "जहा सुहं देवाणुप्पिया" के रूप में आचार्य प्रवर ने स्वीकृति प्रदान की। युवक प्रतिज्ञा ग्रहण कर घर लौट आया। ___ x x शीतल मन्द सुगन्धमय समीर के साथ ही नगर में ये सुखद समाचार फैल रहे थे कि सती समुदाय का आगमन हुआ है, भावुक भावुक भक्त-भ्रमर सद्गुणों की सरस सौरभ ग्रहण करने के लिए पहुँचे । सतीजी ने अन्धकार और प्रकाश का गंभीर विश्लेषण करते हुए कहा-अन्धकार के पुद्गल अशुभ होते हैं और प्रकाश के पुद्गल शुभ होते हैं । मन-वाणी और कर्म जब अशुभ कार्य की ओर प्रवृत्ति करते हैं विकार और वासनाओं की ओर बढ़ते है, तब आत्मा अन्धकार की ओर बढ़ता है, जब वे शुभ में प्रवृति करते हैं, त्याग वैराग्य को ग्रहण करते है। संयमसाधना, तप, आराधना और मनोमन्थन करते हैं तब आत्मा प्रकाश की ओर बढ़ती है।। भक्त-भ्रमर जब उड़ गये तब एक कुमारिकाने आगे बढ़कर वंदना करते हुए कहा—सद्गुरुणी जी ! पाप अन्धकार है विकार अन्धकार है, वासना अन्धकार है । मैं पक्ष अन्धकार के अन्धकार की ओर नहीं बढ़ेगी, कृष्ण पक्ष में आत्मा को कृष्ण न बनाऊँगी। Jain Education Internationa Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०५ पावन व्रत क्या आशय है तुम्हारा ?-- सतीजी ने पूछा मैं कृष्ण पक्ष में पूर्ण ब्रह्मचर्य का पालन करूंगी - शान्त किन्तु सबल वाणी में उत्तर मिला । सतीजी की मुद्रा से प्रकट हो रहा था कि वे उसके उत्तर को सुनकर प्रसन्न है । उन्होंने कुछ रुक कर कहातुम्हारे विचार श्रेष्ठ है, किन्तु प्रतिज्ञा पर दृढ़ रहना यह आर्य बाला कभी विचलित न होगी - उसने दृढ़ता से कहा । ! + + सुहाग की प्रथम रात थी । दीपक के प्रकाश से प्रकोष्ठ जगमगा रहा था । रत्न जटित उच्च आसन पर बैठी हुई सुन्दरी द्वार की और अपलक दृष्टि से देख रही थी कि नई उमंगे, नई तरंगे लेकर धीरे से युवक ने प्रवेश किया । सुन्दरी ने उठकर स्वागत किया और अभ्यर्थना करती हुई बोली - आर्यपुत्र ! यह कृष्ण पक्ष है न ! इस कृष्ण पक्ष में आत्मा क्यों कृष्ण बनाई जाय, यही सोचकर मैंने सद्गुरुणी जी के समक्ष पूर्ण ब्रह्मचर्य पालन का संकल्प किया है और वह भी जीवन भर के लिए । सुन्दरी की बात सुनते ही युवक चौंका । उसका चेहरा मुरझा गया, वह चिन्ता के महासागर में डुबकी लगाने लगा । स्वाभाविक मुस्कान बिखेरती हुई सुन्दरी ने कहाप्रियतम ! आप चिन्ता न कीजिये। यदि आप वासना पर विजय प्राप्त नहीं कर सकते हैं, विकारों को नहीं जीत Jain Education Internationa Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०६ अमिट रेखाएं सकते हैं तो मैं सहर्ष आपसे अभ्यर्थना करती हूं कि आप दूसरा विवाह करलें। सुभगे ! यह बात नहीं हैं। चिन्ता का रहस्य कुछ और हैं। मैं अपने लिए चिन्तित नहीं हूँ, तुम्हारे लिए चिन्तित हूँ-युवक ने गंभीर मुद्रा में कहा। आर्यपुत्र ! आप मेरे लिए किसी प्रकार की चिन्ता न करें। मैंने जो प्रतिज्ञा ग्रहण की है वह सोच विचारकर की है-बाला ने गंभीरता और दृढ़ता से कहा। ___ प्रिय ! मैंने भी आचार्य वर से शुक्ल पक्ष में ब्रह्मचर्य का नियम ले रखा है, जब तुम अपने पर काबू पा सकती हो तो क्या मैं अपने पर नहीं पा सकता ? जिस पथ पर आत्मबल की न्यूनता के कारण हम नहीं बढ़ सके थे। उस महामार्ग पर आज हमें एक दूसरे का बल पा कर बढ़ना है, हम मंत्रों की साक्षी से एक दूसरे से बन्धे हैं। जीवन के महान् लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए हमने विवाह किया है, तो हाथ आगे बढ़ाओ, आज से हम अपने दाम्पत्य जीवन में भाई-बहिन की पवित्रता की प्रतिष्ठा करेंगे । अवश्य हमारा यह पावन व्रत जगत में एक अनूठा और अमर आदर्श होगा। इस महान संकल्प पर आकाश में असंख्य-असंख्य तारे चमक कर बधाईयां दे रहे थे। Jain Education Internationa Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४ | मूखों का सूचीपत्र एक सौदागर बढ़िया घोड़े दिल्ली दरबार में लेकर आया। बादशाह अकबर ने उन घोड़ों को बहुत पसन्द किये और वे सभी घोड़े खरीद लिये। और साथ ही उस सौदागर को एक लाख रुपये इसलिए दे दिये कि दूसरे वर्ष वह इसी प्रकार के घोड़े ले आवे । सौदागर के चले जाने के कुछ दिन पश्चात् बादशाह ने पूछा-बीरबल ! मेरी एक इच्छा है कि हिन्दुस्तान में जितने बेवकूफ हैं उनकी एक फहरिस्त तैयार की जाय । बीरबल-जी हजूर ! यह कार्य आज से ही प्रारंभ कर दिया जायेगा। कुछ ही दिनों में मूखों की सूची तैयार हो गई और वह बादशाह सलामत की सेवा में पेश की गई। सूची खोलकर बादशाह ने देखा कि सबसे प्रथम उनका ही नाम है जिसे देखते ही बादशाह लाल पीला हो गया और कहा कि यह क्या ! बतलाओ यह तुमने क्यों लिखा ? बीरबल-जिसे हजूर न जानते हैं और न पहचानते हैं उस सौदागर को एक लाख रुपये दिये तो क्या वह Jain Education Internationa Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०८ अमिट रेखाएं मूर्खता नहीं है। अकबर–यदि सौदागर घोड़े ले आया तो बतलाओ तुम्हें क्या दण्ड दूं। बीरबल-जहाँपनाह ! यदि वह घोड़ ले आयेगा तो आपके नाम के स्थान पर उसका नाम रख दिया जायेगा। हमारे दण्ड का सवाल तो पैदा ही नहीं होता । बादशाह चुप हो गया। Jain Education Internationa Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ | परिव्राट और सम्राट आज मुख कमल क्यों मुरझाया हुआ है, चेहरा प्रसन्न नहीं है, किस चिन्ता सांपिनी ने डसा है ? परिवाट ने एक दीवान से पूछा। __ क्या पूछते हैं गुरुदेव, अनर्थ, महाअनर्थ ! कहते-कहते गला रूंध गया, आगे शब्द जिह्वा के बाहर नहीं निकल सके, आँखें आंसुओं से डबडबा गई। आचार्य श्री ने कहा-मैं समझ गया तुम्हारे दुःख का कारण । किस प्रकार समझ गये, मेरे मन की बात ! मेरे कष्ट का कारण किसी को भी पता नहीं, और फरमा रहे हैं कि मैं समझ गया, तो बतलाइये, आप क्या समझ गये हैं ? दीवान खिसिंह ते आशा कि दृष्टि से जैनाचार्य पूज्य श्री अमरसिंह जी महाराज की ओर देखा। निरपराध राज कन्या को मौत के घाट उतारने की घटना ने ही तो तेरे दयालु हृदय को द्रवित किया है ? दीवान आचार्य श्री की बात सुनकर अवाक् था । Jain Education Internationa Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अमिट रेखाएं क्या आचार्य श्री का आध्यात्मिक विकास इतना बढ़ा चढ़ा है जिससे मन की बात जान लेते हैं। दीवान ने दीनस्वर से पूछा-भगवन् ! क्या कोई उपाय है, क्या उस अविवाहिता कन्या के प्राण बच सकते हैं, बादशाह ने इस कार्य की जांच करने के लिये वजीर को नियुक्त किया, वजीर का और मेरा घनिष्ट प्रेम है । बाला को देखने के लिए उसने मुझसे आग्रह किया कि क्या तुम भी चलोगे । मैंने सहर्ष अनुमति दे दी। गये, कमरा बन्द था ? अन्दर से करुण क्रन्दन स्पष्ट सुनाई दे रहा था। वह अबला बाला छाती मत्था पीट रही थी, हाय किस्मत ! में राजकुल में जन्मी, अपना अनमोल रत्न किसी के हाथ नहीं बेचा, समझ में नहीं आता, किस कर्म के उदय से मुझे गर्भ रह गया, वह अपने दुर्भाग्य को कोसती हुई रो रही थी, उसे हमारे पैरों की खनखनाहट सुनाई दी, वह उठी और तेजी के साथ बढ़ी, द्वार की ओर देखने के लिए कि कौन खड़ा है बाहर, द्वार खोला, वजीर को और मुझे देखते ही धड़ाम से गिर पड़ी, पत्थर से सिर टकरा गया, मस्तिष्क से खून बहने लगा। पृथ्वी रक्त रंजित हो गई। उस अबला के सिर पर वजीर ने हाथ फेरा, बेटी? घबराओ मत, हवा की, उसके मुंह में पानी दिया, घाव पर पट्टी बांधी, मूर्छा दूर हुई, कुछ चेतना आई, आंखें खोली फिर मीचलीं और कुछ समय बाद बोली-वजीर जी आपके साथ ये कौन हैं। इस दुनियां में मेरा तो कोई Jain Education Internationa Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिवाद और सम्राट १११ नहीं है, मैं अकेली हूँ, असहाय हूँ, क्या आप मेरी सहायता करने के लिए आये हैं। वह आगे कुछ न कह सकी, सिसक-सिसक कर रोने लगी। बजीर ने कहा-ये जोधपुर के दीवान खिसिंह हैं, मेरे दोस्त हैं, मुझे को बादशाह बहादुरशाह ने तुम्हारे कार्य की जांच करने के लिए नियुक्त किया है। बादशाह ने कहा है-सात दिन में तुम सही निर्णय नहीं करोगे तो मैं सातवें दिन उस पापिनी को फांसी चढ़वा दूंगा, उसने शाही कुल में कलंक लगाया है। मैं इसी की जांच करने के लिए तुम्हारे पास आया हूँ। उसकी आंखों से आंसुओं की अविरल धारा बह रही थी। मृत्यु के भयानक भय से वह कांप रही थी, तथापि धैर्य धारण कर उसने कहा-वजीर, जी मैं साफ हृदय से कहती हैं कि मैं पाक हैं, मैंने कभी भी निंद्यकर्म नहीं किया, कुत्सित और घृणित आचरण नहीं किया। तथापि क्यों गर्भ रह गया, मैं कह नहीं सकती, उसने सिर वजीर के चरणों में रख दिया, वह प्राणों की प्रार्थना करने लगी, इस निरीह अबला बाला को बचाओ, बचाओ ! उसको आश्वासन देने के लिए वजीर ने कहा, बेटी ? घबरा मत, तू फिक्र मतकर, तुम्हारा कोई अनिष्ट नहीं होगा। मैं पूर्ण प्रयत्न करूंगा, ये शब्द कहते-कहते बूढ़े वजीर की आंखों में भी आंसू आ गये। हे भगवान ! मेरा तो इस करुण दृश्य को देखकर हृदय काँप गया, रह-रह कर उस बाला की दर्द भरी पुकार Jain Education Internationa Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११२ अमिट रेखाएं कर्णकुहरों में गूंज रही है, बचाओ, बचाओ।......" न मैंने तबसे भोजन किया, इसी विचार में सोया, किन्तु नींद नही आई, वजीर भी इसी चिन्ता में रातभर तड़पते रहे, किन्तु समस्या का समाधान नहीं कर सके। मैंने विचारा प्रातःकाल जाकर ही आचार्य देव से पूछूगा कि बचाने का कोई उपाय है। आचार्य श्री ने कहा-मन्त्रीवर ! चिन्ता की विशेष बात नहीं, यह तो मैं आगम प्रमाणों से निश्चित रूप से कह सकता हूँ कि उस अबला का तनिक मात्र भी अपराध नहीं है। अब उसे बचाने का एक उपाय है यदि तुम कर सकते हो तो वह उपाय यह है कि जब तक वह बालक उत्पन्न न हो जाय तब तक उसे मारा न जाय । दीवान ने कहाइसका क्या मतलब है गुरुदेव, क्या बाद में मारना। आचार्य श्री ने कहा-नहीं ! इसमें एक कारण है, यदि वह बाला अपने कर्तव्य मार्ग से फिसल गई होगी तो उस बच्चे के रोम होगा, हड्डियां होगी, यदि उसने अपराध नहीं किया है, तो वह नव जात बालक हड्डियां और रोमरहित होगा, वह अड़तालीस (४८) मिनट में पानी के बुदबुदे की तरह नष्ट हो जायेगा । दीवान ने नमस्कार किया, और खुश होता हुआ वह वजीर के पास गया, उसने आचार्य श्री की बात वजीर के सामने रखी, वजीर को यह बात बहुत पसंद आई। खिसिंह के साथ ही वजीर बादशाह सलामत के पास पहुँचे। Jain Education Internationa Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिबाट और सम्राट वजीरजी, क्या उस सम्बन्ध में जांच की ? बादशाह ने पूछा। वजीर ने सारी रामकहानी बादशाह को सुनाई, बादशाह को आश्चर्य हुआ, उसे फकीर की बात पर विश्वास नहीं हुआ। वह खिल-खिलाकर हंस पड़ा, अच्छी मारी है गप्प तुमने। ___ अनुभव करके देखिए, आचार्य श्री के वचनों में सत्य है और तथ्य है। बादशाह विचार में पड़ गया, अच्छा, तुम, कहते हो तो अभी रहने देता हैं, किन्तु यह बात झूठी है। दिन बीतते गये, बालक ने जन्म लिया, बादशाह वजीर और दीवान सभी उसे देखने गये, देखा बालक आचार्य श्री के कथनानुसार ही है । हड्डी और रोमरहित । देखते ही देखते उस मांस पिंड का क्षण भर में पानी-पानी हो गया। बर्फ की तरह वह पिघल गया, सभी सहम गये, आचार्य श्री की वाणी सत्य सिद्ध हुई। सम्राट चल पडा परिव्राट की सेवा में, जनता यह देखकर आश्चर्य चकित थी कि परिवाट के चरण कमलों में भारत का सम्राट झुका हुआ है। Jain Education Internationa Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षमामूर्ति भूतल जल रहा था, ग्रीष्म की उष्णवायु मानव देह में सन्ताप पैदा कर रही थी। ग्रीष्म के ताप सन्ताप से बचने के लिए प्राणी अपने घरों में जा छिपे थे। जलते हुए मध्यान्ह में भी राजप्रासाद में शीतलता थी, सम्राट अपनी प्रधान महिषी के साथ बैठा हुआ रंगरेलियां कर रहा था, चन्दन की सुमधुर सौरभ से महल महक रहा था। बिखरे हये वैभव को देखकर अभिमान का समुद्र ठाठे मार रहा था। ___महारानी ने अपने सौहार्द व चातुर्य से महाराज को अपने वश में कर लिया था। हाथ में पान का बीड़ा लेते हुए महाराज ने कहामेरी हृदय साम्राज्ञी ! मैं आज तुझे अपने हाथों से पान खिलाऊँगा, मदिरा की प्याली तो तुम नहीं पीती हो, किन्तु पान खाओगी न, मुंह खोलो, पान खालो ! रानी ने भी हाथ बढ़ाया, लो महाराज ! इस तुच्छ दासी के हाथ का पान आप भी खालो न! मुंह में पान देती हुई रानी हंस पड़ी। Jain Education Internationa Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षमामूर्ति ११५ राजा ने थूकने के लिए अपना मुंह गवाक्ष के बाहर निकाला त्योंही उसकी दृष्टि एक योगी पर गिरी ! खुला सिर था, नंगे पैर थे, पृथ्वी पर दृष्टि डाले हुये सावधानी से चले जा रहे थे । शरीर भव्य था, तपस्तेज अंग-अंग से टपक रहा था, सिर बड़ा था, उस पर घुंघराले बाल हवा से लहरा रहे थे, अंग सौष्ठव को देखकर दर्शक के दिल में यह विचारधारा पैदा हो जाती थी कि किस कारण से इस महामानव ने संसार की मोहमाया को छोड़ा है, यह जवानी में इतना बड़ा त्यागी कैसे बना है ? मुनि को देखते ही महारानी के हृदय में एक युग की वह पुरानी स्मृति जाग उठी । मेरा प्रिय भ्राता भी तो ऐसा ही था न ! धन्य है उस भ्राता को, जो मेरी जवानी में इस प्रकार तपकर रहा होगा, धिक्कार है मुझको जो उसकी बहिन होकर इस प्रकार विषयासक्त हूँ । कहाँ उसका प्रकाशमय जीवन और कहाँ मेरा अंधकारमय जीवन ! उसका कितना ऊँचा जीवन है, मेरा कितना नीचा जीवन है ! विचारते-विचारते आंखों से अश्रुकण गिर पड़े। महाराज बोले, कब तक देखती रहोगी, मेरी ओर देखो न, मैं तो तुम्हारी ओर कब से टकटकी लगाकर देख रहा हूँ, किन्तु तुम तो बिल्कुल ही बे-परवाह हो गई । महाराज ने आंख ऊपर उठाकर देखा, महारानी के आंखों से अश्रुकण गिर रहे थे, क्या कारण है ? आंखों में Jain Education Internationa Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अमिट रेखाएं ये आँसू कैसे ? महारानी ने बात टालते हुये कहा-कहां है आंसू ? नाथ ! आपको यों ही भ्रम हो गया है। __ सम्राट ने खिड़की से बाहर मुह निकाला तो देखा, वीथिकाएं जनशून्य है, एक ही योगी उस दीर्घ पथ पर चला जा रहा है । मालूम होता है यह उसका प्रेमी है, मैं भी इसका प्रेमी हूँ. इसके रूप के सामने मेरा रूप तो दिन के चन्द्र के समान है । एक म्यान में दो तलवारें कभी नहीं रही है, आज ही मैं इसे क्यों नहीं परलोक पहुँचाएं, न रहेंगा बांस न बजेगी बांसुरी।। महाराज ! कहां चल दिए, जरा बात तो सुनकर जाइए ! सुन्दरी ! अभी नहीं, फिर कभी, यों कहते-कहते ही महाराज रंगभवन का त्याग कर, बाहर निकल गये। सुन्दरी स्तब्ध होकर देखती रह गई, यह रंग में भंग किस प्रकार हो गया, वह कुछ भी नहीं समझ सकी। ___ महाराज पधारिये ! सिंहासन को शोभित कीजिए। नहीं ! नहीं ! अभी मैं सिंहासन पर नहीं बैठेगा जब तक मैं अपने शत्रु का काम तमाम नहीं कर दूंगा, तब तक मुझे शांति नहीं ! राजा की गंभीर गर्जना से सैनिक कांप गये, सम्राट् ! आपके शत्रु कौन हैं, इस पृथ्वी पर ? आज्ञा दीजिए इन सैनिकों को, आज्ञा होते ही उसे जीवित ही कंद कर लाएं या उसका सिर काटकर लाएं। Jain Education Internationa Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षमा मूर्ति ११७ ___ मेरे प्यारे योद्धाओं ! जाओ मुख्य राजपथ पर एक योगी जा रहा है, उसे पकड़ लाओ। कन्धे पर धनुष बाण लटकाए हुए हाथ में तलवारें लिए हुऐ अश्वारोही चल पड़े। ठहरिए, योगीराज ! कान खोलकर सुनिए, राजा की आज्ञा है; तुम्हें कैदी बनाएंगे। मुनि शान्त भाव से खड़े थे, मुख मंडल मृदु हास्य से आलोकित हो रहा था। जनता बोल उठी. अरे आतताइयों ! इस त्यागमूर्ति तपस्वी को क्यों कैदी बना रहे हो ? किन्तु किसकी हिम्मत थी जो राजाज्ञा को ठोकर लगाकर आगे बढ़ता । नगर में सर्वत्र हाहाकार मच गया । महान् अन्याय हआ है । एक निरपराध मुनि को राजसेवक पकड़ कर ले गये हैं । राजा तो इतना अच्छा है, किन्तु आज इसने यह क्या कर दिया है ? सैनिकों ने महाराज के सन्मुख मुनि को उपस्थित किया । महाराज ! यह है आपका अपराधी । सम्राट् रक्त पूर्ण नेत्रों से मुनि को देखता है। दांत पीसते हुऐ, मूछों पर हाथ रखते हुऐ, राजा दण्डक बोला-आज मैं इसे बड़ा दण्ड दूगा, तभी मालूम होगा इसे मेरे पराक्रम का। दण्डक की आंखें क्रोध से रंजित थी। सभी सेवक नतमस्तक खड़े हुए आज्ञा को राह देख रहे थे। ____ गंभीर गर्जना करते हुऐ दण्डक ने कहा--इस अपराधी को श्मशान में ले जाओ, इसके शरीर की चमड़ी उतार दो, गड्ढा खोदकर, इसके शरीर को उसमें गाड़कर इसके Jain Education Internationa Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११८ अमिट रेखाएं सिरपर घोड़े दौड़ा दो। और अन्त में इसका सिर तलवार से उड़ा दो। जो आज्ञा की अवज्ञा करेगा उसे भी इसी प्रकार का दण्ड दिया जावेगा। क्षणभर सभी स्तब्ध रह गये, कुछ भी निर्णय कर नहीं पा रहे थे ! यह क्या है ? दण्ड है या महादण्ड ! पाषाण हृदय हत्यारों का हृदय भी कांप उठा, सम्राट के निर्णय . को सुनकर मुनि के चेहरे पर क्रोध की एक भी रेखा नहीं थी। वहां शान्ति का अक्षुण्ण तेज था । मुह से वेदना का एक भी शब्द नहीं सुनाई दे रहा था, वहां तो यही शब्द सुनाई दे रहे थे। "खामेमि सव्वे जीवा सव्वे जीवा खमंतु मे, मित्ती मे सव्व भूएस, वेरं मझं न केणई ।' मैं सब जीवों को क्षमा करता हूं और वे सब जीव भी मुझे क्षमा करें। मेरी सब जीवों के साथ मित्रता है किसी के साथ भी वैर विरोध नहीं है। मुनि मैरु की तरह अविचल खड़े थे, उपसर्गों को शान्त भाव से सहन कर रहे थे, क्रोध को प्रेम से जीत रहे थे। शरीर से रक्त की धारा बह रही थी, किन्तु हृदय से तो इससे भी अधिक प्रेम धारा बह रही थी। न राजा पर हृष था और न शरीर पर राग ही था। कर्म पटल दूर होते ही आत्मा केवल ज्ञान और केवल दर्शन के दिव्य प्रकाश से प्रकाशित हो गई। दण्ड देने वाले हत्यारों के हाथों से तलवारें गिर पड़ी, क्षमा मूर्ति ! हमें क्षमा करना ! Jain Education Internationa Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७ | करुणामूर्ति भगवान भास्कर अपनी स्वर्णिम रश्मियों के साथ व्योम पर आधिपत्य स्थापित कर अठखेलियाँ कर रहा था, चारों ओर भीष्म ग्रीष्म का साम्राज्य था। एक महामुनि जिसका दमकता हुआ, चेहरा लम्बी ललाट, गौरवर्ण, वैभवपूर्ण उज्वल नयन, हँसता मुखड़ा जिसे देख नागरिक आश्चर्यान्वित हो रहे थे, यह क्या हो गया ? एक दिनकर तो आकाश में है, दूसरा पृथ्वी पर कहां से आ गया। तप से कृशकाय होते हुए भी क्या तेज है इनके मुखड़े पर, इनकी तेजस्विता के सामने व्योम में विचरण करने वाला सहस्ररश्मी सूर्यदेव भी फीका मालूम हो रहा है। वह महाश्रमण तो नीची दृष्टि किये हुये, चला जा रहा था, चुपचाप, अपने आपमें लीन होकर । एकाएक भव्यभवन का द्वार खुला, एक बहिन ने आवाज लगाई, महाराज कृपा कीजिए, आहार सूझता है। श्रमण पहुँचा भोजनालय में, बहिन का कर कमल शाक Jain Education Internationa Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२० अमिट रेखाएं के पात्र से सुशोभित था । मुनि ने पृथ्वी पर पात्र रखा, बहिन ने वह भोजन, नहीं, नहीं, वह शाक डाल दिया, साधु पात्र में । मुनि तो कहता ही रहा थोड़ा-थोड़ा किन्तु उसने समस्त शाक देकर ही विश्राम लिया। ____ मुनि लेकर लौट पड़ा, आचार्यश्री विराजमान थे, आहार सारा सामने रखा, देखिए गुरुदेव ! यह लाया हूँ। वत्स ! मासखमण की दीर्घ तपस्या के पारणे में केवल शाक ही। __ भगवन् ! क्या कहूँ, उस बहिन की भक्ति, मेरे मना करने पर भी, उसने समस्त शाक दे दिया । कृपा कीजिए "साह हुज्जामि तारियो" के शास्त्रीय स्वर में उस श्रमण ने सद्गुरुवर्य से प्रार्थना की। प्रार्थना को सन्मान देते हुए आचार्यश्री ने शाक का एक कण मुंह में रखा, तुरंत उसे पुनः बाहर निकाल दिया। वत्स ! यह क्या लाया है, यह तो जहर है, हलाहल देव ! मुझे पता नहीं था, कृपया मेरे अपराध को क्षमा कीजिए । आपको कष्ट हुआ। ___ अन्य शिष्यों को आज्ञा प्रदान करते हए आचार्यश्री ने गंभीर मुद्रा में कहा-जाओ! इस आहार को एकान्त स्थान में डाल आओ। गुरुदेव ! यह मेरा कार्य है, इसे मैं ही करूंगा, अन्य को इसके लिए कष्ट न दीजिए, आचार्य विवश थे। वह मासिकब्रती मुनि, हाथ में पात्र लेकर चल पड़ा Jain Education Internationa Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ करुणामूर्ति १२१ वन प्रदेश की ओर, तप्ततवे के समान भूमि तप रही थी। मुख कमल मुरझा रहा था, किन्तु वह योगी तो बढ़ा ही जा रहा था, इसी धुन में जहां कोई जीव-जन्तु न हो। ___ एक स्वच्छ स्थान दिखाई दिया, प्राणियों से रहित, एक कण आहार डाला, भूमि पर और पास ही बैठकर देखने लगा, कि कोई प्राणी तो नहीं आता है। घृत और शक्कर से पके हुए शाक की गन्ध से पृथ्वी पर विचरण करती हुई चीटियां आई, मानो हलाहल शाक के रूप में मृत्यु उन्हें आह्वान कर रही थी। ____ मुनि का मन क्षुब्ध-विक्षुब्ध हो उठा, तिलमिला उठा, क्या इस शाक से मैं प्राणियों का विनाश या सर्वनाश करूं, नहीं कदापि नहीं, भूल करके भी नहीं। करुणा सागर का हृदय करुणा की हिलोरें लेने लगा। अनुकम्पा की परम पवित्र भावना हृदय समुद्र में ठाठे मारने लगी, उसने पात्र उठाया, चीटियों की रक्षा के लिए, अन्य प्राणियों को सुखी देखने के लिए, शान्तभाव से उस हलाहल के शाक को खाया, उस धर्ममूर्ति धर्मरुचि अनगार ने, गगन मंडल में अनुकम्पा की महिमा का जय नाद गूंज उठा "दिया नागश्री ने कटुक शाक जिसको, उस धर्मरुचि ने, पिया कैसे विषको।" Jain Education Internationa Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८ | शिष्यों की परीक्षा सन्ध्या की लालिमा समाप्त हो गई थी। आचार्य विश्वकीर्ति अध्यापन से निवृत्त हो तृणसंस्तरण पर लेटे हुए विश्रान्ति की मुद्रा में थे। सहसा उनके तीन अन्तेवासी शिष्यों को वन्दन कर निवेदन किया-“गुरुदेव ! हमारी शिक्षा समाप्त हो गई है अब हम गृहस्थाश्रम में प्रवेश की अनुज्ञा चाहते हैं। आचार्य ने शिष्यों की इच्छा देखकर आज्ञा प्रदान की। तीनों शिष्य सहर्ष अपने स्थान पर आकर प्रस्थान की तैयारी करने लगे। आचार्य ने उनके जाने के पश्चात् सोचा-मैंने अनुमती तो दे दी है, पर परीक्षा कर नहीं देखा कि इन तीनों में कौन जाने के योग्य है ? इन तीनों में से कौन मेरे नाम को, चार चाँद लगायेगा और कौन नहीं। ऊषा की सुनहरी किरण अभी निकली ही नहीं थी, आचार्य उठे और शौचादि निवृत्ति हेतु उसी दिशा में गये जिस दिशा में आज तीनों शिष्य गमन करने वाले थे। शिष्यों की परीक्षा के लिए कुछ कांच के टुकड़े मार्ग में Jain Education Internationa Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शिष्यों की परीक्षा १२३ बिखेर दिये और स्वयं सन्निकट की झाड़ी में छिपकर देखने लगे। कुछ ही समय के पश्चात् तीनों शिष्य वहीं आ गये । प्रथम शिष्य कांच के टुकड़ों को लांघकर बिना संकोच आगे बढ़ गया । और दूसरे शिष्य के कदम शिथिल हो गये । वह सोचने लगा--ये तीक्ष्ण कांच के टुकड़े किसी राही के कोमल पैरों को क्षत विक्षत न बनादे अतः इन्हें मार्ग से हटा देना चाहिए, पर जाना दूर है, मार्ग लम्बा है । यदि इस तरह हटाता रहा तो कब घर पहुँच पाऊंगा, ऐसा सोच उसके कदम पुनः तेज हो गये। तीसरा शिष्य वहीं रुक गया, उसने अपनी पोथी-पत्रोंको एक तरफ रखा और ध्यान पूर्वक उन कांच के टुकड़ों को बीनने लगा। दोनों साथियों ने कहा-भाई ! यह क्या कर रहे हो ? जल्दी चलो, धूप चढ़ जाएगी। यों तुम कहां तक रास्ता साफ करते रहोगे। उसने कहा-भाई यह तो मेरा कर्तव्य है, उसकी वात पूरी भी न होने पाई थी कि आचार्य झाड़ी में से निकल आए । तीनों शिष्य आश्रम से चार मील की दूरी पर आचार्य को देखकर दंग रह गये। ___आचार्य ने कहा - मैंने अभी तुम तीनों का अपनी आंखों से आचरण देखा है और कानों से तुम्हारी बात भी सुनी है । मुझे महान् आश्चर्य है कि वर्षों तक तुम मेरे अन्तेवासी बन आश्रम में रहे हो। शास्त्रों का गम्भीर अध्ययन किया है पर तुम दोनों का अध्ययन अभी अपरि Jain Education Internationa Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२४ अमिट रेखाए पक्व हैं । तुम जब राह में पड़े हुए पत्थर व कांच के टुकड़ों को हटाकर किनारे नहीं कर सकते तब तुम से मैं यह कैसे आशा रखू कि समाज-परिवार और राष्ट्र की राह में आए विघ्न और बाधाओं की चट्टानों को तुम दूर कर सकोगे । शिक्षा का अर्थ पुस्तके कंठाग्र कर लेना नहीं है और न किसी विषय पर लच्छेदार भाषा में भाषण दे देना ही हैं किन्तु शिक्षा वह है जो जीवन को सजाती हो संवारती हो और मुक्ति प्राप्त कराती हो “सा विद्या या विमुक्तये ।' __ तृतीय शिष्य के सिर को चूमते हुए आचार्य ने कहावत्स ! तुम परीक्षा में पूर्ण सफल हो, तुम्हाराज्ञान निरन्तर बढ़ता रहे, शुक्ल पक्ष के चंद्र की तरह तुम्हारी कीर्ति कौमुदी प्रतिपल प्रतिक्षण बढ़ती रहे । मेरी शुभाशीषः तुम्हारे साथ है, तुम जाओ, और खूब चमको । Jain Education Internationa Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लेखक की महत्त्वपूर्ण कृतियां १ ऋषभदेव : एक परिशीलन (शोध प्रवन्ध) मूल्य ३)०० रु० २ धर्म और दर्शन .. (निबन्ध) मूल्य ४)०० रु० ___ दोनों के प्रकाशक-सन्मति ज्ञानपीठ, लोहामंडी आगरा-२ ३ भगवान् पार्श्वः एक समीक्षात्मक अध्ययन (शोध प्रबन्ध) मूल्य ५)०० रु० प्रकाशक---पं० मुनि श्रीमल प्रकाशन जैन साधना सदन, २५६ नानापेठ पूना-२ ४ साहित्य और संस्कृति (निबन्ध) मूल्य १०)०० रु० प्रकाशक --भारतीय विद्या प्रकाशन __पो० बोक्स १०८-कचौड़ी गली, वाराणसी-१ ५ चिन्तन की चांदनी (उद्बोधक चिन्तन सूत्र) मूल्य ३)०० रु० ६ अनुभूति के आलोक में (मौलिक चिन्तन सूत्र) मूल्य ४)०० रु० दोनों के प्रकाशक-श्री तारक गुरु जैन ग्रन्थालय, पदराड़ा Jain Education Internationa Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२६ अमिट रेखाएं ७ संस्कृति के अंचल में (निबन्ध) मूल्य १)५० प्रकाशक-सम्यक् ज्ञान प्रचारक मंडय; जोधपुर ८ कल्प सूत्र, मूल्य : राजसंस्करण २०, प्रकाशक-श्री अमर जैन आगल शोध संस्थान गढ़सिवाना, जिला बाड़मेर (राजस्थान) ६ अनुभव रत्न कणिका (गुजराती; चिन्तन सूत्र) मूल्य २) रु० सन्मति साहित्य प्रकाशन व स्थानकवासी जैन संघ उपाश्रयलेन घाटकोपर बम्बई-८४ १० चिन्तन की चांदनी (गुजराती भाषा में) प्रकाशक-लक्ष्मी पुस्तक भंडार, गांधी मार्ग (अहमदाबाद) ११ फूल और पराग (कहानियाँ) मूल्य १)५० १२ खिलती कलियां : मुस्कराते फूल (लघु रुपक) मूल्य ३)५० रु १३ भगवान् अरिष्टनेमि और कर्मयोगी श्रीकृष्णः एक अनुशीलन (शोध प्रवन्थ) मूल्य १०) रु० १४ बोलते चित्र (शिक्षाप्रद ऐतिहासिक कहानियां) मूल्य १)५० १५ बुद्धि के चमत्कार मूल्य १)५० रु० १६ प्रतिध्वनि (विचारोत्तेजक रूपक) मूल्य ३)५० रु० १७ महकते फूल (लघु कथायें) मूल्य २)०० रु० श्री तारक गुरु-जैन ग्रथालय, पदाड़ा Jain Education Internationa Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लेखक की महत्वपूर्ण कृतियां 1. प्रतिध्वनि 2. बोलते चित्र 3. महकते फूल 4. अमिट रेखाएँ 5. धर्म और दर्शन 6. फूल और पराग 7. बुद्धि के चमत्कार 8. चिन्तन की चांदनी 6. विचार रश्मियाँ 10. संस्कृति के अंचल में 11. साहित्य और संस्कृति 12. अनुभूति के आलोक में 13. ऋषभदेव : एक परिशीलन 14. खिलती कलियाँ : मुस्कराते फूल 15. भगवान अरिष्टनेमी और कर्मयोगी श्रीकृत 16. भगवान पार्श्व : एक समीक्षात्मक अध्ययन In EOLICE