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अमिट रेखाएं
गुरुदेव ने उपालम्भ देते हुये कहा - वत्स ! यह श्रमण का आचार नहीं है । इस प्रकार लब्धि का प्रयोग करना अनाचार हैं, तुम्हें इसका प्रायश्चित ग्रहण करना होगा । और भविष्य के लिये प्रतिज्ञा ।
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शिष्य ने कहा -- गुरुदेव ! आप मेरी कला की कद्र नहीं करते हैं । कला का उपयोग करने पर मुझे उपा लम्भ देते हैं ! और प्रायश्चित के लिए कहते हैं ? क्या मेरी कला इसीलिए है ? मैं अब यहां नहीं रहूँगा ।
गुरुदेव ने शान्त और मधुरवाणी से कहा -वत्स ! उत्तेजित न बनो, जोश में होश को न भूलो। मैं जो कहता हूँ मेरे लिए नहीं, पर तुम्हारे आत्म उत्थान के लिए । अनाचार का यदि प्रायचित ग्रहण नहीं किया जाता है तो वह जीवन में अधिकाधिक विकृतियाँ पैदा करता है अतः तुम्हें आत्मशुद्धि के लिए प्रायश्चित्त लेना ही चाहिये |
शिष्य ने कहा- मुझे अब प्रायश्चित नहीं लेना है । साधु की कठोर चर्या मेरे से पालन नहीं होती, मैं जिस घर से भिक्षा लाया हूँ वह नाटकमंडली के उच्च अधिकारी का घर था उसने रूप परिवर्तन करते हुये मुझे देख लिया था, और उसने अपनी प्यारी पुत्रियों से कहा था कि यह साधारण पुरुष नहीं है, यह तो कला का देवता है । तुम दोनों इनकी उपासना करो । यदि तुम प्रेम से इनको आकर्षित कर सकी तो यह तुम्हें चमका देगा, और साथ ही नाटकमंडली भी चमक उठेगी ।
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