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शिष्यों की परीक्षा
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बिखेर दिये और स्वयं सन्निकट की झाड़ी में छिपकर देखने लगे।
कुछ ही समय के पश्चात् तीनों शिष्य वहीं आ गये । प्रथम शिष्य कांच के टुकड़ों को लांघकर बिना संकोच आगे बढ़ गया । और दूसरे शिष्य के कदम शिथिल हो गये । वह सोचने लगा--ये तीक्ष्ण कांच के टुकड़े किसी राही के कोमल पैरों को क्षत विक्षत न बनादे अतः इन्हें मार्ग से हटा देना चाहिए, पर जाना दूर है, मार्ग लम्बा है । यदि इस तरह हटाता रहा तो कब घर पहुँच पाऊंगा, ऐसा सोच उसके कदम पुनः तेज हो गये। तीसरा शिष्य वहीं रुक गया, उसने अपनी पोथी-पत्रोंको एक तरफ रखा और ध्यान पूर्वक उन कांच के टुकड़ों को बीनने लगा। दोनों साथियों ने कहा-भाई ! यह क्या कर रहे हो ? जल्दी चलो, धूप चढ़ जाएगी। यों तुम कहां तक रास्ता साफ करते रहोगे।
उसने कहा-भाई यह तो मेरा कर्तव्य है, उसकी वात पूरी भी न होने पाई थी कि आचार्य झाड़ी में से निकल आए । तीनों शिष्य आश्रम से चार मील की दूरी पर आचार्य को देखकर दंग रह गये। ___आचार्य ने कहा - मैंने अभी तुम तीनों का अपनी आंखों से आचरण देखा है और कानों से तुम्हारी बात भी सुनी है । मुझे महान् आश्चर्य है कि वर्षों तक तुम मेरे अन्तेवासी बन आश्रम में रहे हो। शास्त्रों का गम्भीर अध्ययन किया है पर तुम दोनों का अध्ययन अभी अपरि
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