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________________ पावन व्रत उसका आलोक अच्छन्न है। ज्यों ज्यों वह अत्याचारअनाचार, भ्रष्टाचार दुराचार और व्यभिचार से मुक्त होता जाता है, त्यों-त्यों उसकी ज्योति अधिकाधिक जगमगाती है, मैं आत्म ज्योति को विकसित करने के लिए शुक्ल पक्ष के चन्द्र की भाँति आगे बढ़ना चाहता है। चाँद जैसे अपनी चंचल किरणे बिखेरेगा वैसे मैं अपने आत्मआलोक की। __ आचार्य ने मुस्कराते हुए पूछा-वत्स, तुम्हारा क्या अभिप्राय है ? मैं शुक्ल पक्ष में सदाचार मय जीवन व्यतीत करना चाहता हूँ, पूर्ण ब्रह्मचर्य का पालन करना चाहता हूँ, युवक ने अपनी बात का स्पष्टीकरण करते हुए कहा। वत्स ! प्रतिज्ञा ग्रहण करने में शीघ्रता अपेक्षित नहीं हैं । तलवार पर चलना सरल है किन्तु ब्रह्मचर्य के महामार्ग पर चलना कठिन है ? जिस मार्ग पर चलते समय ज्ञानियों, ध्यानियों और तपस्वियों के भी कदम लड़खड़ा जाते हैं। वासना कोकिल कुहुक कुहुक कर अन्तर्मानस में गुदगुदी पैदा करता है। उस समय प्रतिज्ञा का भंग न करना वीरता है, स्वीकृत संकल्प का परित्याग न करना धीरता है, साहस है-आचार्य श्री ने कहा। भगवन ! मैंने इस पर गंभीरता से सोचा है । विचारा है और उसके पश्चात् ही अतमानस की बात आपके समक्ष प्रकट की है....."आत्मा बालक नहीं है, दुर्बल नहीं Jain Education InternationaFor Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003195
Book TitleAmit Rekhaye
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1973
Total Pages140
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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