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अमिट रेखाएं
प्रसन्नता का पार न रहा । पुत्र को प्राप्तकर सेठानी बांसो उछलने लगी ।
उसका नाम उसने प्रवीण रखा। प्रवीण बड़ा हुआ, उसका पाणिग्रहण वीणा के साथ सम्पन्न हुआ ।
एक दिन अनिलकान्त बीमार हो गया । प्रवीण उसके पास जाकर बैठा ! पिताजी अभी बहुत बड़े डाक्टर को बुलालेता हूँ। वह कोई असरदार दवाई दे देगा जिससे स्वास्थ्य शीघ्र ही ठीक हो जायेगा ।
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अनिलकान्त - प्रवीण ! अब मैं कुछ ही घंटों का मेहमान हूँ । डाक्टर को बाद में बुलाते रहना । अभी मेरी अन्तिम तीन शिक्षाएं ध्यान से सुनना और उन्हें जीवन में अपनाना । वे शिक्षाएं ये हैं
(१) जहाँ पर राजा अपना न हो, अपने प्रति स्नेह न हो वहाँ पर नहीं रहना ।
(२) जिस स्त्री का अपने प्रति प्रेम न हो जिसमें अर्पण करने की भावना न हो वहां न रहना ।
(३) जहाँ पर मुनीम अपना न हो वहाँ पर न रहना । प्रवीण -- पिताजी आपको मैं विश्वास दिलाता हूं कि मैं आपकी शिक्षाओं को अपनाऊंगा ज्यों ही उसने यह आश्वासन दिया त्यों ही अनिलकान्त को एक हिचकी आई और सदा के लिए आंख मूंद ली ।
प्रवीण पर अब सारी घर गृहस्थी की जुम्मेदारी आ गई । उसने गृहस्थाश्रम की गाड़ी को इस प्रकार चलाई कि लोग उसकी बुद्धि से विस्मित हो गए ।
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