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आचार्य स्थूलभद्र
भगवान के मुखारविन्द से अपने सम्बन्ध में निर्णय सुनकर मुझे बहुत ही प्रसन्नता हुई । मेरा संशय नष्ट हो गया। शासनदेवी पुनः मुझे यहाँ ले आई। संघ को मैंने समस्त घटना सुनाई। मैंने उस समय भगवान का जो उपदेश सुना था, वह एक बार के सुनने से मैंने उसे स्मरण रखा था, वह भावना, वियुक्ति, रतिकल्प और विचित्र-चर्या ये चार चूलिकायें भी संघ को अर्पित की, संघ ने दो चूलिकायें आचारांग के प्रथम दो अध्ययनों के रूप में नियुक्त की और दो दशवकालिक के अन्त में नियोजित की। साध्वी यक्षा आदि ने मुनि स्थूलभद्र को सारी बात बतायी और वहां से लौट गई। मुनि स्थूलभद्र मुनि भी ध्यान से निवृत्त होकर आचार्य भद्रबाहु के पास पहुँचे। वाचना देने की प्रार्थना की, पर आचार्य ने स्पष्ट इन्कार करते हुये कहा-तू इसके लिए सर्वथा अयोग्य है।
मुनि स्थूलभद्र ने यह सुना तो उन्हें बहुत ही दुःख हुआ। उन्होंने अत्यन्त अनुनय-विनय के साथ पूछाभगवन् ! आप इतने समय तक मुझे बड़ी वत्सलता के साथ वाचना प्रदान कर रहे थे, आज सहसा यह अकृपा कैसे हो गई?
आचार्य भद्रबाहु ने कहा-तू पात्र नहीं है और अपात्र को दिया हुआ ज्ञान कभी फलवान नही होता । ___ मुनि स्थूलभद्र अपने जीवन का अवलोकन करने लगे, पर कोई भी स्खलना उन्हें स्मरण नहीं आई ।
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