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| सन्देह की मुक्ति
एक श्रेष्ठी अपने प्यारे पुत्र की शादी कर लौट रहा था। उसका शहर उस शहर से अस्सी मील दूर था । बारात ने रात्रि विश्राम जंगल में किया, पास ही सरिता की सरस धाराएं बह रही थीं, चारों ओर हरियाली छा रही थी, सघन वृक्षावली थी। सायंकाल का भोजन कर सभी लोग सो गये। दुलहिन जग रही थी, उसे अभी तक निद्रा नहीं आई थी। आधी रात हो चुकी थी, सहसा एक शृगाल के शब्द उसके कानों में गिरे
यदि समझ है तो सुनो, जम्बुक वचन उदार । नदी तीर शव जांध में, रत्न पड़े हैं चार ।।
दुलहिन पशु-पक्षियों की आवाज पहचानती थी। वह बहुमूल्य चार रत्नों के लेने का लोभ संवरण न कर सकी। वह उसी क्षण उठी। उसने चारों ओर पैनी दृष्टि से देखा कि कोई जग तो नहीं रहा है उसे अनुभव हुआ कि सभी गहरी निद्रा में सो रहे हैं, वह अकेली नदी की ओर चल पड़ी। दुल्हा की निद्रा एकाएक खुल गई। दुलहिन की Jain Education InternationaFor Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org