SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 84
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ आदर्श भावना ७१ ग्रहण की थी कि हम अध्ययन पूर्ण होने पर न्याय शास्त्र पर ग्रन्थ लिखेंगे। क्या वह तुम्हारी प्रतिज्ञा पूर्ण हो गई, या तुम्हारी स्मृति में ही वह बात नहीं रहो। चैतन्य मित्र ! मैं उस प्रतिज्ञा को नहीं भूला, मैंने न्यायशास्त्र पर एक ग्रन्थ लिख दिया है । वह ग्रन्थ आज मैं अपने साथ ही लेकर आया हूँ, तुम उसे देखलो और उसका भाषा आदि की दृष्टि से जो भी परिष्कार करना चाहो, सहर्ष कर दो। गदाधर ने मोती के समान चमचमाते हुए सुन्दर अक्षरों में लिखे हुए ग्रन्थ के दो चार पृष्ठ उलटे कि सहसा उसका मुख कमल मुरझा गया ! उसने ग्रन्थ को नीचे रख दिया। चैतन्य-मित्र ! क्या बात है ! क्या ग्रन्थ अशुद्ध है ? या इसमें त्रुटियां रह गई हैं ? तुम्हारा चेहरा इसे देखकर म्लान क्यों हो गया। तुम्हें स्मरण है न । विद्यार्थी जीवन में तुम मेरे से कभी भी कोई भी बात छिपा कर नहीं रखते थे। जो भी होता उसे साफ-साफ मुझे बता देते थे, पर आज अपने हृदय के उद्गारों को क्यों छिपा रहे हो। गदाधर की आँखें आंसुओं से गीली हो गई। उसने रुंधे कंठ से कहा-मित्र मैं अधम ही नहीं, महा अधम है। मुझे अपने प्यारे मित्र की शानदार कृति को देखकर प्रसन्न होना चाहिए था, और तुम्हें इसके लिए बधाई देनी चाहिए थी पर मैं वैसा नहीं कर सका, उसका कारण है कि मैंने भी न्यायशास्त्र पर अपनी प्रतिज्ञा के अनुसार एक ग्रन्थ Jain Education InternationaFor Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003195
Book TitleAmit Rekhaye
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1973
Total Pages140
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy