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________________ करुणामूर्ति १२१ वन प्रदेश की ओर, तप्ततवे के समान भूमि तप रही थी। मुख कमल मुरझा रहा था, किन्तु वह योगी तो बढ़ा ही जा रहा था, इसी धुन में जहां कोई जीव-जन्तु न हो। ___ एक स्वच्छ स्थान दिखाई दिया, प्राणियों से रहित, एक कण आहार डाला, भूमि पर और पास ही बैठकर देखने लगा, कि कोई प्राणी तो नहीं आता है। घृत और शक्कर से पके हुए शाक की गन्ध से पृथ्वी पर विचरण करती हुई चीटियां आई, मानो हलाहल शाक के रूप में मृत्यु उन्हें आह्वान कर रही थी। ____ मुनि का मन क्षुब्ध-विक्षुब्ध हो उठा, तिलमिला उठा, क्या इस शाक से मैं प्राणियों का विनाश या सर्वनाश करूं, नहीं कदापि नहीं, भूल करके भी नहीं। करुणा सागर का हृदय करुणा की हिलोरें लेने लगा। अनुकम्पा की परम पवित्र भावना हृदय समुद्र में ठाठे मारने लगी, उसने पात्र उठाया, चीटियों की रक्षा के लिए, अन्य प्राणियों को सुखी देखने के लिए, शान्तभाव से उस हलाहल के शाक को खाया, उस धर्ममूर्ति धर्मरुचि अनगार ने, गगन मंडल में अनुकम्पा की महिमा का जय नाद गूंज उठा "दिया नागश्री ने कटुक शाक जिसको, उस धर्मरुचि ने, पिया कैसे विषको।" Jain Education InternationaFor Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003195
Book TitleAmit Rekhaye
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1973
Total Pages140
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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