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योगसार-प्राभृत है। साथ ही तद्भिन्न व्यक्ति में योग नहीं बनता ऐसी सूचना दोनों गाथाओंमें की गयी है। तीसरी गाथामें यह बतलाया गया है कि जो विपरीनाभिनिवेश (अन्यथा श्रद्धारूप दुराग्रह) को छोड़कर जैनकथित (जैनागम-प्रतिपादित ) तत्त्वोंमें आत्माको जोड़ता-लगाता है वह योगभक्तिरूप निज परिणामको लिये हुए योगरूप होता है-उसीके योगसाधन बनता है। इस कथनके द्वारा आचार्य महोदयने योगका नियुक्तिपरक सामान्य अर्थ जोड़ना लेकर उसके विशेषार्थरूप किसको किसके साथ जोड़ना इसको स्पष्ट करते हुए स्वात्माको तीन विषयों के साथ जोड़नेको योगरूपमें निर्दिष्ट किया है--एक तो राग-द्वेषादिके परिहार (त्याग) रूपमें, दूसरे सम्पूर्ण संकल्प-विकल्पोंके अभावरूपमें और तीसरे विपरीताभिनिवेशसे रहित होकर जिनेन्द्र-कथित तत्त्वोंके परिचिन्तनमें । इसमें दोनों प्रशस्तध्यानों (धर्मध्यान और शक्लध्यान ) का समावेश हो जाता है और दोनों अप्रशस्त ध्यान छूट जाते हैं। साथ ही सकलसञ्चारित्रका अनुष्ठान भी विधेय ठहरता है; क्यों कि 'रागद्वेषनिवृत्त्यै चरणं प्रतिपद्यते साधुः' इस वाक्य के अनुसार राग-द्वेषादिकी निवृत्तिके लिए ही सञ्चारित्रका अनुष्ठान किया जाता है।
अब देखना यह है कि ग्रन्थकार महोदयने स्वयं 'योग' शब्दको मुख्यतः किस अर्थमें गृहीत किया है । इस विषयमें उनका एक पद्य बहुत स्पष्ट है और वह इस प्रकार है
विविक्तात्म-परिज्ञानं योगात्संजायते यतः ।
स योगो योगिभिर्गीतो योगनिधूतपातकैः ॥९-१०॥ इसमें बतलाया है कि 'जिस योगसे-एकाग्रचिन्ता-निरोधरूप ध्यानसे अथवा मनको स्वके तथा इन्द्रियोंके अन्य व्यापारोंसे हटाकर शुद्धात्मतत्त्वके चिन्तनमें जोड़ने-लगानेसेविविक्तात्माका जो परिज्ञान होता है,-स्वात्माको उसके स्वाभाविक शुद्धस्वरूप में जाना-पहचाना जाता है-उसे उन योगियोंने (वास्तवमें ) 'योग' कहा है जिन्होंने योग-द्वारा पातकोंको-मोह तथा ज्ञानावरणादिरूप घातिकर्ममलको-स्वात्मासे धो डाला है-सदाके लिए पृथक कर दिया है।' योगके स्वरूप-निर्देशमें जिन योगियोंका यहाँ उल्लेख किया गया है वे मात्र कथनी करनेवाले साधारण योगी नहीं किन्तु अधिकारप्राप्त विशिष्ट योगी हैं ऐसा उनके निधंतपातकः' विशेषणसे जाना जाता है, और इस विशेषणसे यह भी ज्ञात होता है कि जिस योगके स्वरूपका यहाँ निर्देश किया गया है उससे विविक्तात्माका केवल परिज्ञान ही नहीं होता बल्कि उसकी सम्प्राप्ति भी होती है, जिसे 'स्वात्मोपलब्धि' अथवा 'स्व-स्वभावोपलब्धि' भी कहते हैं और जिसके उद्देश्यको लेकर ही इस ग्रन्थका प्रारम्भ तथा निर्माण हुआ है. (१) । इसमें कुन्दकुन्द-प्रतिपादित योगका तृतीय अर्थ खास तौरसे परिगृहीत है और उसको लेकर सात तत्त्वोंके सात अधिकार अलग-अलग रूपसे निर्दिष्ट हुए हैं।
जिस योगका उक्त स्वरूप है उसीके सार-कथनको लिये हुए यह ग्रन्थ है। 'सार' शब्द विपरीतार्थ के परिहारार्थ प्रयुक्त होता है; जैसा कि श्री कुन्दकुन्दाचार्य के नियमसार-गत निम्नवाक्यसे जाना जाता है
विवरीय-परिहरत्थं भणिदं खलु सारमिदि वयणं ॥३॥ और इससे यह यथार्थताका वाचक है। योगसारका अर्थ हुआ योगका विपरीततासे रहित यथार्थरूप । 'सार' शब्द श्रेष्ठ, स्थिरांश, सत तथा नवनीत ( मक्खन ) का भी वाचक
१. समीचीनधर्मशास्त्र ३-१ (४७) ।
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