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प्रस्तावना
ग्रन्थ-नाम
___ इस ग्रन्थका नाम 'योगसारप्राभृत' है; जैसा कि ग्रन्थके निम्न अन्तिम पद्यसे जाना जाता है
योगसारमिदमेकमानसः प्राभृतं पठति योऽभिमानसः ।
स्व-स्वरूपमुपलभ्य सोऽञ्चितं सद्म याति भव-दोष-वञ्चितम् । यह नाम योग, सार और प्राभृत इन तीन शब्दोंसे मिलकर बना है। 'योग' शब्द अनेक अर्थों में प्रयुक्त होता है। आगम-ग्रन्थोंमें 'काय-वाङ्-मनः-कर्म योगः' इस तत्त्वार्थसूत्र (६-१) के अनुसार काय, वचन तथा मनकी क्रियाका नाम 'योग' है, जिससे कर्मोंका आस्रव होता है और इसीलिए जिसको अगले 'स आस्रवः' सूत्रके अनुसार 'आस्रव' भी कहा जाता है । योगका दूसरा सामान्य अर्थ 'जोड़ना'-एक पदार्थका दूसरे पदार्थके साथ किसी प्रकारका सम्बन्ध करना है। गणितशास्त्रमें योगका प्रायः यही अर्थ परिगृहीत है अर्थात् एक राशिको दूसरी राशि या राशियोंके साथ जोड़कर एक राशि बनाना। वैद्यकशास्त्रमें भी योग औषधियोंको जोड़कर एक मिश्रण तैयार करनेके अर्थमें प्रयुक्त है, जिसे यूनानीमें 'मुरकब' कहते हैं, और जिसके व्यवहारकी दृष्टिसे वैद्यक तथा हिकमत दोनों में ही अनेक नाम होते हैं। तीसरा अर्थ 'ध्यान' है; जैसा कि 'योगो ध्यानं समाधिः' आदि एकार्थवाचक वाक्योंसे जाना जाता है। एकाग्रचिन्ता निरोधका नाम ध्यान है। चिन्ताका विषय प्रशस्तअप्रशस्त होनेसे ध्यान भी दो प्रकारका हो जाता है-एक प्रशस्तध्यान, दूसरा अप्रशस्त ध्यान अप्रशस्तध्यान आत-रौद्र के भेदसे दो प्रकारका है और धर्म-शुक्लभेदसे प्रशस्तध्यान भी दो प्रकारका है। श्रीकुन्दकुन्दाचार्यने नियमसारमें योगका जो अभिव्यंजक अर्थ तीन गाथाओंमें दिया है वह उसके चौथे विशिष्ट अर्थकी अभिव्यंजना करता है जो इस प्रकार है
रायादी परिहारे अप्पाणं जो दु जुजदे साहू । सो जोगभत्तिजुत्तो इदरस्स कह हवे जोगो ॥१३७॥ सव्ववियप्पाभावे अप्पाणं जो दु जुंजदे साहू। सो जोगभत्तिजुत्तो इदरस्स कह हवे जोगो ॥१३॥ विवरीयाभिणिवेसं परिचत्ता जोण्हकहियतच्चेसु ।
जो जुजदि अप्पाणं णियभावो सो हवे जोगो ॥१३९॥ इनमें से पहली तथा दूसरी गाथामें उस साधकको योगभक्तिसे युक्त बतलाया है जो क्रमशः रागादिके परिहारमें तथा सर्व विकल्पोंके अभाव में अपने आत्माको जोड़ता-लगाता
१. युजेः समाधिवचनस्य योगः समाधिानमित्यनर्थान्तरम् । तत्त्वावा० ६-१-१२ ।
योगो ध्यानं समाधिश्च धीरोधः स्वान्तनिग्रहः ।
अन्तःसलीनता चेति तत्पर्यायाः स्मृता बुधैः ।-आर्ष २१-१२। २. एकाग्रचिन्तानिरोधो ध्यानम् ।-तत्त्वार्थसूत्र ।
योगश्चिन्तैकाग्रनिरोधनं 'स्याद् ध्यानम् ।- तत्त्वानु०-६१ ।
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