________________
वृत्तमक्तिक
ऋग्वेद-प्रातिशाख्य को छंदः शास्त्र की प्राचीनतम रचना माना जाता है । यह महर्षि शौनक की रचना है । इसका विवेच्य विषय व्याकरण है परन्तु प्रसंगवश छंदों की भी चर्चा की गई है । यह चर्चा नितांत अधूरी है । छंदों का ज्ञान प्राप्त किये बिना मंत्रों का उच्चारण ठीक तरह से नहीं हो सकता । इसीलिए इस ग्रंथ में छंदों का विवरण दिया गया है । "
८]
ऋग्वेद तथा यजुर्वेद को सर्वानुक्रमणियों में भी छंदों का विवरण मिलता है। छंदोऽनुक्रमणी में दस मंडल हैं और उसमें ऋग्वेद के समस्त छंदों का क्रमशः विवरण दिया गया है। यह भी शौनक की रचना है । शांखायन श्रौतसूत्र में भी प्रसंगवश छंदों पर विचार किया गया है ।
1
पतंजलि ने निदानसूत्र में छंदों का उल्लेख करते हुए कुछ प्राचीन छंद:शास्त्र के प्रवक्ताओं के नामों का उल्लेख भी किया है । ये पतंजलि महाभाष्कार पतंजलि से भिन्न कोई प्राचीन आचार्य थे । एक अन्य गायं नामक आचार्य ने उप निदानसूत्र में इन पतंजलि के अतिरिक्त तण्डिब्राह्मण, पिंगल आदि आचार्यो तथा उक्थशास्त्र का उल्लेख किया है। उक्थशास्त्र, संभव है छन्दः शास्त्र के लिए प्रयुक्त कोई प्राचीन नाम रहा हो । कीथ ने हलायुधकोश की साक्षी से इन वैदिक परम्परा के प्राचीन ग्रंथों को वेदांग छन्दस् कहा है ।
यास्क ने अपने निरुक्त में वैदिक छंदों के नामों का निर्वचन किया है ।
यथा
गायत्री गायते स्तुतिकर्मरणः । त्रिगमना वा विपरीता । गायतो मुखात् उदपतत् इति च ब्राह्मणम् । उष्णिगुत्स्नाता भवति । स्निह्यतेर्वा स्यात्कान्तिकर्मणः । उष्णीषिणी वेत्यपमिकम् । उष्णीषं स्नायतेः । ककुत्ककुभिनी भवति । ककुप्च कुब्जश्च कुजतेर्षा । उब्जते । श्रनुष्टुवनुष्टोभनात् । गायत्रीमेव त्रिपदां सतीं चतुर्थेन पादेनानुष्टोभतीति इति च ब्राह्मणम् । बृहती परिबर्हणात् । पंक्तिः पंचपदा । त्रिष्टुब्स्तोभत्युत्तरयवा । का तु त्रिता स्यात् । तीर्णतमं छन्दः । त्रिवृद्वज्ञस्तस्य स्तोभतीति वा । यत् त्रिरस्तोभतत्त्रिष्टुप्त्वम् - इति विज्ञायते । जगती गततमं छन्दः । जलचरगतिर्वा । जल्गल्यमानो असृजत् इति च ब्राह्मणम् । विराज् विराजनाद्वा । विराधनाद्वा । विप्रापणाद्वा । विराजनात्सम्पूर्णाक्षरा । विराधनादूनाक्षरा । विप्रापणादधिकाक्षरा । पिपीलिकामध्येत्योपमिकम् । पिपीलिका पेलतेर्गतिकर्मणः । 3
१ - वैदिक साहित्य – रामगोविंद त्रिवेदी, पृ० २४०
२ - संस्कृत साहित्य का इतिहास कीथ ( हिंदी अनुवाद, चोखम्बा) पृ० ४६२
३ - निरुक्त, ७/१२