________________
भूमिका
तथा यति के प्रसंग में छंदःशास्त्र - प्रवक्ता जयकीर्ति द्वारा उल्लिखितवांछन्ति यति पिंगलवसिष्ठकौंडिन्य कपिलकम्बलमुनयः । नेच्छन्ति भरतकोहल माण्डव्याश्वतरसैतवाद्याः केचित् ॥
परम्पराओं का उल्लेख भी किया है । '
[ ७
पिंगल - छंदः सूत्र में उल्लिखित श्राचार्यों का नाम ऊपर ना चुका है । इससे प्रकट है कि आचार्य पिंगल से पहले छंदः शास्त्र के प्रवक्ताओं की एक व्यवस्थित एवं अविच्छिन्न परम्परा विद्यमान थी ।
वैदिक और लौकिक छन्दःशास्त्र
छंद दो प्रकार के कहे गये हैं - वैदिक और लौकिक । वेद संहिताओं में प्रयुक्त गायत्री, अनुष्टुप् त्रिष्टुप् जगती, पंक्ति, उष्णिक्, बृहती, विराट् श्रादि छंद वैदिक कहे जाते हैं । छंदः शास्त्र के प्रारंभिक ग्रंथों में केवल वैदिक छंदों और उनके भेद-प्रभेदों पर ही विचार किया जाता था । बाद में वाल्मीकि ने लौकिक साहित्य में भी छंद का प्रयोग किया। उन्हें आदि - कवि होने का श्रेय मिला । इतिहास, पुराण, काव्य आदि में छंदों का प्रभूत रूप से प्रयोग होने लगा । बाद में इन छंदों के लक्षणादि के विषय में छंद : शास्त्र में विचार प्रारम्भ हुआ । संस्कृत - छंदः शास्त्रों के आधार पर परवर्ती काल में प्राकृत और अपभ्रंश भाषाओं में छंदों के लक्षण-ग्रंथ भी लिखे गये ।
छन्द के विषय में उपलब्ध प्राचीनतम सामग्री
वैदिक संहिताओं में गायत्री आदि छंदों के नाम अनेकधा उल्लिखित हैं परन्तु उनका विवेचन वहाँ प्राप्त नहीं होता । वस्तुतः उन स्थलों पर छन्दों के नामों द्वारा आधिदैविक और श्राध्यात्मिक रहस्यों की ओर ही संकेत किया गया ज्ञात होता है । मंत्रों के ऐसे संकेतों का ब्राह्मण-ग्रंथों में विस्तार से स्पष्टीकरण किया गया । विराट् छंद का संबंध विराज- गौ (प्रकृति) से बतलाते हुए ताण्ड्य - महाब्राह्मण में उसे छंदों में ज्योतिस्वरूप कहा गया है - विराड् वै छन्दसां ज्योतिः । * विराट को दशाक्षरा भी कहा गया है ।" अन्य छंदों के विषय में भी ऐसे ही रहस्य मिश्रित विचार ब्राह्मण-ग्रंथों में मिलते हैं ।
१ - जयकीत्तिकृत छन्दोनुशासन, १०१३ एवं वैदिक छंदोमीमांसा पु० ५८
२ - नारदपुराण – पूर्व भाग २ । ५७ । १
३-ताण्ड्य महाब्राह्मण, ६।३।६, १०।२।२
४- दशाक्षरा वै विराट् - शतपथब्राह्मण; १|१|१|२२, ऐतरेय ब्राह्मण, ६ २०; गोपथब्राह्मण पूर्वार्धं ४ २४; उत्तरार्ध ११८, ६२, ६ १५; ताण्ड्य महाब्राह्मण, ३।१३ । ३