Book Title: Vibhakti Samvad
Author(s): Atmaramji Maharaj
Publisher: Lala Sitaram Jain

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Page 11
________________ ओवम्मसंखा चउम्विहा पण्णत्ता, तंजहा-अस्थि संतयं संतएणं उवमिजइ । अस्थि संतयं असंतएणं उवमिजइ। अत्थि असंतयं संतएणं उवमिजइ । अत्थि असंतयं असंतएणं उवमिजइ । तत्य संतयं संतएणं उवमिजइ, तंजहा–संता अरिहंता संतएहिं पुरवरेहि संतएहि कवाडेहि, संतएहिं वच्छेहिं उवमिज्जइ । तंजहा पुरवरकवाडवच्छा, फलिहभुया दुंदुहित्थणियघोसा । सिरिवच्छंकियवच्छा, सव्वे वि जिणा चउव्वीसं ॥ संतयं असंतएणं उवमिजइ, जहा-संताई नेरइयतिरिक्खजोणियमणुस्सदेवाणं आयुआई असंतएहिं पलिओवमसागरोवमेहिं उवमिजन्ति । असंतयं संतएणं उवमिजइ, तंजहापरिजूरियपेरंतं चलंतबिट पडन्तनिच्छीरं । पत्तं व वसणपत्तं, कालप्पत्तं भणइ गाहं ॥ जह तुम्मे तह अम्हे, तुम्हेऽवि य होहिहा जहा अम्हे । अप्पाहेइ पडतं. पंडुयपत्तं किसलयाणं ॥ ण वि अस्थि णवि अ होही, उल्लावो किसल पंडुपत्ताणं । उवमा खलु एस कया भवियजणविबोहणट्ठाए ॥ असंतयं असंतएहिं उवमिजइ, जहा खरविसाणं तहा ससविसाणं । से तं ओवम्मसंखा। -अनुयोगद्वार, प्रमाणद्वार 'मागम साहित्य में ही नहीं, पीछे के आचार्यों ने भी इस शैली को चालू रक्खा और मनोरंजक ग्रन्थों के द्वारा मनोरंजन के साथ साथ शिक्षा का विस्तार किया। भाचार्य सिद्धर्षि का उपमितिभवप्रपंचकथा नामक Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com

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