Book Title: Vibhakti Samvad
Author(s): Atmaramji Maharaj
Publisher: Lala Sitaram Jain

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Page 69
________________ विभक्ति संवाद -करण में तृतीया-मया कृतम्, त्वया कृतम्, मया पठितम् । सम्प्रदान में चतुर्थी-नमः स्वाहा, अर्हते नमः, अग्नये स्वाहा। भवणम णिह एत्तो, इओ त्ति वा पंचमो अवादाणे । छट्ठी तस्स इमस्त वा गयस्स वा सामि-सम्बन्धी ॥५॥ -अपादान में पञ्चमी विभक्ति होती है—एतस्माद् दूरं अपनय, इतो गृहाण । स्वस्वामि-सम्बन्ध में षष्ठी होती है-वस्य, अस्य, गतस्य । हवइ पुण सत्तमी, तं इमंमि आहार कालभावे य। आमंतणी भवे अट्ठमो ४ जहा हे जुवाणेति ॥६॥ -आधार में सातवों विभक्ति होती है। इसके आधार, काल और भाव के भेद से मुख्यतया तीन भेद हैं। आधारअस्मिन् पर्वते वृक्षाः। काल-मधौ पिकाः कूजन्ति । भावचारित्रेऽवतिष्ठते । आमंत्रण में आठवों विभक्ति होतो है हे युवन् ! हे पुरुष ! ___अब अधिक कहने का कोई अर्थ नहीं है। तुम्हें इससे ही समझ लेना चाहिए। उक्त पद्धति से अनुयोगद्वार सूत्र के अष्ट नाम विषयक प्रकरण में और स्थानाङ्ग सूत्र के अष्टम स्थान में मैंने तुम सब का साथ ही उल्लेख किया है। मेरी दृष्टि तुम सब पर एक सी ही है। अतएव तुम सब आपस में बड़े प्रेम से रहो और अपने अपने योग्य स्थानों से ज्ञान का प्रकाश करती हुई संसार का उपकार करती रहो। __ भगवान महावीर के पवित्र और गम्भीर स्याद्वादमय उपदेश Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com

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