Book Title: Vibhakti Samvad
Author(s): Atmaramji Maharaj
Publisher: Lala Sitaram Jain

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Page 37
________________ विभक्ति संवाद भ्यस् । ये प्रत्यय आज तक किसी और विभक्ति को नहीं लगे। कितने वफादार हैं, ये मेरे ! मेरा रूप-सौन्दर्य भी कुछ कम नहीं है। 'धर्माय, धर्माभ्याम् , धर्मेभ्यः धनं ददाति' वाक्य में कितना सुन्दर उपदेश मेरे रूप दे रहे हैं। एक धर्म के लिए धन देता है, दो धर्मों के लिए धन देता है, सब धर्मों के लिए धन देता है-अर्थात् धार्मिक संस्थाओं में धन वितीर्ण करने से उक्त तीनों धर्मोंकी यथायोग्य प्राप्ति हो सकती है। ___कर्ता का कर्म मेरे लिए ही तो है। 'देवदत्तः उपाध्यायाय गां ददाति'-इस वाक्य में उपाध्याय सम्प्रदान है, गौ कर्म है, देवदत्त कर्ता है। यहाँ देवदत्त कर्ता का कर्म गौ उपाध्यायरूप सम्प्रदान के लिए है । इसके अतिरिक्त देवदत्ताय कन्यां प्रयच्छति. राज्ञे दण्डं वितरति, छात्राय चपेटां ददाति इत्यादि प्रयोगों से यह भलीभाँति सिद्ध हो जाता है कि सम्प्रदानकारक द्वारा ही कर्ताका कर्म सफल हो सकता है। सत्पुरुषों का प्रत्येक कार्य उपकार के लिए, ज्ञान के लिए, मोक्ष के लिए होता है। अतः उपकाराय, ज्ञानाय, मोक्षाय में भी मेरी ही उपासना हो रही है। भगवन् ! प्रतिक्रमण में जहाँ आप जैसे महापुरुषों को नमस्कार किया जाता है, वहाँ भीतो मैं ही हूँ। 'नमोत्थुणं अरिहंताणं भगवंताणं' में अर्हन्त भगवान् भी सम्प्रदान बन गए हैं । मैंने अपनी उदारता से प्राकृत भाषा में अपना स्थान षष्ठी को दे २७ आवश्यकसूत्रगत शक्रस्तव का पाठ। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com

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