Book Title: Vibhakti Samvad
Author(s): Atmaramji Maharaj
Publisher: Lala Sitaram Jain

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Page 57
________________ विभक्ति संवाद में स्थित होकर जीवन को पवित्र बनाती है। ज्ञान के साथ ही दर्शन भी अवस्थित होता है, अतः दो धर्मों की आराधना हो जाती है। देशविरत अथवा सर्वविरत आत्मा सम्यग्ज्ञान, सम्यग् - दर्शन और सम्यक् चारित्र रूप धर्मत्रय में अवस्थित होती है । एक धर्म के लिए यह भी बात है कि मिथ्यादृष्टि आत्मा केवल व्यावहारिक पुण्यरूप धर्म में ठहरती है । जीवन को पवित्र बनानेवाला धर्म है और जबतक जीवात्मा अपने आपको धर्म में संलग्न नहीं करता तबतक संसार सागर से उद्धार नहीं हो सकता । · ४२ संसार में जितने भी द्रव्य हैं, मैं उन सबका आधार हूँ और वे मेरे आधे हैं। आधेय पदार्थ सर्वदा आधार के ही आश्रित रहते हैं । क्या कभी ऐसा भी हुआ है कि आधेय बिना आधार के ही रहते हों ? कभी नहीं । मेरे बिना किसी का काम ही नहीं चल सकता । ५५ क्रिया" का आश्रय कर्ता तथा कर्म होते हैं और कर्ता और कर्म का जो आश्रय —- अधिकरण होता है, वह आधार कहलाता है । आधार में ङि, ओस्, सुप् प्रत्यय होते हैं । उक्त नियम से ५५ आधारे ॥ १।३।१७६ ॥ क्रियाश्रयस्य कर्तुः कर्मणो वा यः आधारः अधिकरणं, तस्मिन् ङयोस्पो भवन्ति । आसने आस्ते । स्थाल्यां पचति । गंगायां घोषः । तिलेषु तैलम् । आकाशे शकुनयः । कृष्णा गोषु सम्पन्नक्षीरतमा, कृष्णा गवां सम्पन्नक्षीरतमा इति समुदायस्यैकदेशं प्रत्याधार भावविषयविवक्षायां सम्बन्धविवक्षायां तु षष्ठी । यथा वृक्षे शाखा । वृक्षस्य शाखा । इति निर्धारणन्तु कृष्णेत्यादेः पदान्तरात् । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com

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