Book Title: Vibhakti Samvad
Author(s): Atmaramji Maharaj
Publisher: Lala Sitaram Jain

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Page 64
________________ उपसंहार कर्म की सिद्धि के पश्चात् करण का नंबर आता है । कर्ता का क्रिया में सब से अधिक जो सहायक है वही करण है । अतः कर्ता और कर्म के बाद करण का मानना युक्तियुक्त है । क्रिया का फल (कर्म) जिसके लिए होता है, वह सम्प्रदान है । यदि सम्प्रदान न हो तो कर्ता क्रिया करे ही क्यों ? अतएव कर्ता, कर्म और करण के बाद सम्प्रदान का अधिकार सिद्ध हो जाता है। ४९ क्रिया का उद्देश्य यही होता है कि एक वस्तु से दूसरी वस्तु को पृथक् कर अन्य वस्तु से उसका सम्बन्ध कराया जाय । इस कथन से अपादान और सम्बन्ध का क्रम आ जाता है । अपादान और सम्बन्ध का पारस्परिक क्रम भी ठीक है । जब एक पदार्थ एक स्थान से पृथक् होगा, तभी तो वह दूसरे स्थान से सम्बन्ध कर सकेगा, पहले तो नहीं । उदाहरण के लिए 'राज्ञः पुरुषःराजा का पुरुष' है । पुरुष का प्रथम अन्य पुरुषों से सम्बन्ध विच्छेद हुआ, फिर राजा से सम्बन्ध स्थापित हुआ तभी तो राजा में षष्ठी हुई । अपादान के अनन्तर सम्बन्ध की सिद्धि के लिए उक्त प्रमाण अतीव बलवान् है । सम्बन्ध एक प्रकार का संयोग है। संयोग गुण है अतः वह किसी न किसी आधार में रहेगा। इस नियम से सम्बन्ध के बाद अधिकरण का - आधार का स्थान आता है । आधार तो सभी विभक्तियों के लिए आवश्यक है अतः सबके अन्त में आधार का उल्लेख किया गया है । सातों विभक्तियों का यह क्रम किसी भी प्रकार से असङ्गत नहीं है । अनादि काल से यह क्रम चला आ रहा है । ૪ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com

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