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उपसंहार
कर्म की सिद्धि के पश्चात् करण का नंबर आता है । कर्ता का क्रिया में सब से अधिक जो सहायक है वही करण है । अतः कर्ता और कर्म के बाद करण का मानना युक्तियुक्त है । क्रिया का फल (कर्म) जिसके लिए होता है, वह सम्प्रदान है । यदि सम्प्रदान न हो तो कर्ता क्रिया करे ही क्यों ? अतएव कर्ता, कर्म और करण के बाद सम्प्रदान का अधिकार सिद्ध हो जाता है।
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क्रिया का उद्देश्य यही होता है कि एक वस्तु से दूसरी वस्तु को पृथक् कर अन्य वस्तु से उसका सम्बन्ध कराया जाय । इस कथन से अपादान और सम्बन्ध का क्रम आ जाता है । अपादान और सम्बन्ध का पारस्परिक क्रम भी ठीक है । जब एक पदार्थ एक स्थान से पृथक् होगा, तभी तो वह दूसरे स्थान से सम्बन्ध कर सकेगा, पहले तो नहीं । उदाहरण के लिए 'राज्ञः पुरुषःराजा का पुरुष' है । पुरुष का प्रथम अन्य पुरुषों से सम्बन्ध विच्छेद हुआ, फिर राजा से सम्बन्ध स्थापित हुआ तभी तो राजा में षष्ठी हुई । अपादान के अनन्तर सम्बन्ध की सिद्धि के लिए उक्त प्रमाण अतीव बलवान् है ।
सम्बन्ध एक प्रकार का संयोग है। संयोग गुण है अतः वह किसी न किसी आधार में रहेगा। इस नियम से सम्बन्ध के बाद अधिकरण का - आधार का स्थान आता है । आधार तो सभी विभक्तियों के लिए आवश्यक है अतः सबके अन्त में आधार का उल्लेख किया गया है । सातों विभक्तियों का यह क्रम किसी भी प्रकार से असङ्गत नहीं है । अनादि काल से यह क्रम चला आ रहा है ।
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