Book Title: Vibhakti Samvad
Author(s): Atmaramji Maharaj
Publisher: Lala Sitaram Jain

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Page 66
________________ उपसंहार है और वे सब अवयव उसके ही कहलाते हैं, ठीक उसी प्रकार मैंने तुम सबको यथास्थान धारण किया हुआ है और तुम सब मेरी आज्ञानुवर्तिनी हो । ५१ तुम तो अन्य व्यक्तियों तुम्हारी विशेषता यह है विवाद क्यों ? तुम्हारा आपस में को संगठन का उपदेश देनेवाली हो । कि तुम एक दूसरी की सहायता करनेवाली हो । द्वितीया के स्थान में तृतीया विभक्ति हो जाती है । अक्षान् दीव्यते, अक्षैदीव्यते आदि प्रयोग इस बात के सूचक हैं | द्वितीया के स्थान में कभी षष्ठी विभक्ति भी हो जाती है । शतं पणते, शतस्य पणते - इत्यादि उदाहरण द्वितीया और षष्ठी के प्रेम के जीवित प्रमाण हैं । , किं बहुना कर्ता में तृतीया विभक्ति होती है— चैत्रेण कृतम् । तृतीया में सप्तमी होती है - मघाभिः फलमोदनम्, मघासु फलमोदनम् । चतुर्थी में द्वितीया - पुष्पाणि स्पृहयति, पुष्पेभ्यः स्पृहयति । पाँचवीं में षष्ठी - दूरं ग्रामात् दूरं प्रामाणाम् । षष्ठी में तृतीया - सर्पिषो जानीते, सर्पिषा जानीते । सातवीं के स्थान पर षष्ठी - गवां स्वामी, गोषु स्वामी । कितने उदाहरण दिये जायँ । तुम सातों ही विभक्तियों का परस्पर प्रेम तथा सहयोग अतीव प्रशंसनीय है । व्यक्तिमात्र को यह तुम्हारे संगठन का आदर्श पारस्परिक प्रेम की ओर प्रेरित करनेवाला है" । ६३ हेतौ हेत्वर्थेः सर्वाः प्रायः ॥ ६३ ॥ १९५ ॥ हेतुर्निमित्तं कारणमिति पर्यायाः, तदर्थैर्योगे हेतौ अप्रधाने प्रायेण सर्वा विभक्त्यो भवन्ति । धनेन हेतुना, धनाय हेतवे, धनाद् हेतोः, धनस्य Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com

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