Book Title: Vibhakti Samvad
Author(s): Atmaramji Maharaj
Publisher: Lala Sitaram Jain

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Page 65
________________ विभक्ति संवाद मैं किसी प्रकार का पक्षपात नहीं करता । सातों ही वचन विभक्तियाँ मेरे ज्ञान में अखण्ड रूप से प्रकाशित हो रही हैं । जिस प्रकार एक ही व्यक्ति के हृदय में प्राकृत, संस्कृत, शौरसेनी आदि विभिन्न भाषाएँ और अनेकानेक पर्वत, वन, नगर आदि के दृश्य समानरूप से प्रतिबिम्बित होते हैं, ठीक उसी प्रकार सातों विभक्तियाँ मेरे ज्ञान में समानरूप से आदर का स्थान पाए हुए हैं। मैं ज्ञान और वीर्य उपयोग से कर्ता हूँ । लोकालोक को देखना मेरा कर्म है। ज्ञान से देखना मेरा करण है । जिनके लिए मैं श्रुतज्ञान का उपदेश करता हूँ वे सम्प्रदान हैं । आत्मविकास के लिए देखना भी सम्प्रदान है । अनन्त ज्ञानशक्ति तभी उत्पन्न हो सकती है जबकि आत्मा से ज्ञानावरण का मल दूर हो जाय । मेरी आत्मा के ज्ञानावरण आदि कर्म दूर हो गये हैं अतः मैं अपादान हूँ । आत्मासे ज्ञानावरण आदि कर्म जब दूर हो गए तब केवलज्ञान और केवलदर्शन का आत्मा से सादि-अनन्त सम्बन्ध हो गया। इस दृष्टि से सम्बन्ध भी मुझ में है । जिस प्रकार आदर्श - दर्पण में पदार्थों का आकार प्रतिबिम्बित हो जाता है ठीक उसी प्रकार मेरे केवलज्ञान में अखिल लोकालोक प्रतिबिम्बत हो रहे हैं। इस न्याय से आधार भी मैं हूँ । मैंने किसी भी पक्षपात के बिना तुम सब को अपने यहाँ स्थान दे रक्खा है । सब की सब अपने अपने योग्य स्थान में समारूढ होवें । न किसी का अधिक मान है और न किसी का अपमान। सत्र बराबर हैं । जिस प्रकार एक पुरुष मस्तक से लेकर चरण पर्यन्त सब शारीरिक अवयवों को धारण किए हुए रहता Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com ५०

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