Book Title: Vibhakti Samvad
Author(s): Atmaramji Maharaj
Publisher: Lala Sitaram Jain

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Page 63
________________ विभक्ति संवाद हस्त आदि अवयव ठीक होने पर ही काम चल सकता है, प्रासाद के सब अवयव सम्पूर्ण होने से ही प्रासाद कहा जाता है, वृक्ष पत्र-पुष्प आदि के होने से ही सुन्दरता प्राप्त कर सकता है उसी प्रकार सातों विभक्तियों के मेल से ही वचन व्यवहार की प्रवृत्ति तथा व्यवस्था होती है, अन्यथा नहीं । ४८ प्रश्न हो सकता है कि जब हम सातों ही प्रधान हैं, उत्कृष्ट हैं, तो फिर सातों का युगपत् ही उल्लेख होना चाहिए, क्रमश: नहीं क्योंकि क्रमशः उल्लेख वहाँ होता है जहाँ कुछ ऊँची नीची श्रेणी होती है । परन्तु यह प्रश्न ठीक नहीं । सातों विभक्तियाँ अपने अपने स्थान में प्रधान होते हुए भी क्रमशः वाच्य हैं । प्रधानता और अप्रधानता की बात दूसरी है और क्रमशः वाच्यता की बात दूसरी । क्रमशः कथन करने का यह भाव नहीं कि कोई छोटी बड़ी है । सर्वप्रथम प्रथमा विभक्ति कर्ता है । यदि कर्ता न माना जाय तो अन्य छह विभक्तियाँ किसी भी काम की न होंगी। जिस प्रकार जीवात्मा के बिना शरीर और अङ्क के बिना शून्य (बिन्दु) का कोई प्रयोजन नहीं, उसी प्रकार बिना कर्ता के कर्मादि षड्विभक्तियाँ भी निष्प्रयोजन हैं । कर्ता शब्द ही क्रिया की सिद्धि करता है - 'यः करोति स कर्ता ।' जब क्रिया को सिद्धि हो गई तो क्रियाफल भी स्वयं सिद्ध हो गया । 'या या क्रिया सा सा फलवती'इस नियम के अनुसार कर्ता के द्वारा की जानेवाली क्रिया का फल कोई न कोई अवश्य होना हो चाहिए कोई नहीं, कर्म है । उक्त पद्धति से कर्ता के मानना सिद्ध हो गया । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com और वह फल अन्य पश्चात् कर्म का •

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