Book Title: Vibhakti Samvad
Author(s): Atmaramji Maharaj
Publisher: Lala Sitaram Jain

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Page 56
________________ सप्तमी विभक्ति ( आधार ) षष्ठी विभक्ति ने जब अपना वक्तव्य समाप्त कर दिया तो सप्तमी विभक्ति उठी और सविधि वन्दन नमस्कार कर अपनी विशेषताएँ बतलाने लगी । भगवन् ! मुझे आधार कहते हैं । मेरा दूसरा नाम अधिकरण भी है । जिस प्रकार सर्व पदार्थोंकी आधारभूत भूमि है, उड़नेवाले विहंगमों का आधारभूत आकाश है, जलादि . पदार्थों के आधारभूत घटादि पदार्थ हैं, उसी प्रकार अन्य सब वचन विभक्तियों की आधारभूत मैं हूँ । सब विभक्तियाँ मेरे ही आश्रित हो कर ठहरी हुई हैं। । मेरे रूप भी बड़े प्रभावशाली हैं - धर्मे, धर्मयोः, धर्मेषु । ये रूप यह सूचित करते हैं कि जीवात्मा कभी एक धर्म में स्थित होता है, कभी दो धर्मों में स्थित होता है, कभी तीन धर्मो में स्थित होता है । अविरत - सम्यग्दृष्टि आत्मा सम्यग्ज्ञान Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com

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