Book Title: Vibhakti Samvad
Author(s): Atmaramji Maharaj
Publisher: Lala Sitaram Jain

View full book text
Previous | Next

Page 48
________________ पश्चमी विभक्ति (अपादान) ३३ बन्धन, साध्य आदि । परन्तु मैंने अपने प्रयोग के लिए अवधिवाचक आङ् ही ग्रहण किया है । अप" और परि उपसर्ग साहित्य में खूब लब्धप्रतिष्ठ हैं । इन दोनों से युक्त वर्ज्य अर्थ में भी मैं प्रयुक्त होती हूँ । प्रति उपसर्ग जब प्रतिनिधि और प्रतिदान अर्थ को सूचित करता है तो मैं उसके साथ सहयोग करती हूँ । कर्म" और आधार का स्थान बहुत ऊँचा माना गया है । परन्तु जब ये 'प्यादेशान्त' से युक्त स्थानी हों तो मैं अपना अधिकार कर लेती हूँ। अर्थ प्रतीत होने पर भी शब्द न दिखलाई दे, वह स्थानी होता है । व्याकरण *" में प्रकृति और प्रलय दो चीजें मुख्य हैं । प्रकृति . ४६ वर्ज्येऽपपरिणा ॥ १।३।१५९ ॥ अप परि इत्येताभ्यां युक्ते वये ङसिभ्यांभ्यसो भवन्ति । अपपाटलीपुत्राद् अपत्रिगर्तेभ्यो वृष्टो देवः । तत्र गर्तान् वर्जयित्वेत्यर्थः । एवं परियोऽपि । ४७ प्रतिनिधिप्रतिदाने प्रतिना ॥ १।३।१६० ॥ प्रतिनिधौ प्रतिदाने च वर्तमानेन प्रतिना युक्ताद् ङसिभ्यांभ्यसो भवन्ति । प्रद्युम्नो वासुदेवात्प्रति, सदृश इत्यर्थः । तिलेभ्यः प्रति माषान् प्रयच्छति । तिलान् गृहीत्वा माषान् ददाति । ४८ स्थानियकर्माधारे ॥ १।३।१६१ ॥ स्थाने प्यादेशान्तेन युक्ते कर्मण्याधारे च ङसिभ्या॑भ्यो भवन्ति । प्रासाद्रात्प्रेक्षते । आसनात् प्रेक्षते । स्थानिग्रहणं किम् ? प्रासादमारुह्य, आसने उपविश्य प्रेक्षते । ४९ प्रत्ययः कृतोऽषठ्याः ॥ १।१४१ ॥ इह यः कृतो विहितः स प्रत्ययसंज्ञो वेदितव्यः । अषष्ठ्याः षष्ठयन्तार्थः ३ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com

Loading...

Page Navigation
1 ... 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100