Book Title: Vibhakti Samvad
Author(s): Atmaramji Maharaj
Publisher: Lala Sitaram Jain

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Page 51
________________ विभक्ति संवाद प्रधान अर्थ में और विभक्तियाँ भी काम कर जाती हैं, पर अप्रधान को कौन पूछता है । बड़ा वह है जो अप्रधानों के साथदीनों के साथ, प्रेम करे। आपकी महत्ता भी तो दीनवत्सलता के कारण ही है। भगवन् ! मैं भी आपके उपदेश पर चल रही हूँ। अप्रधान अर्थ को मैंने अपनाया है। अपादान ने अपना जो गौरव गाया है, वह व्यर्थ है। अपादान का अर्थ विश्लेष-वियोग है; और सम्बन्ध का अर्थ योग-जोड़ है। अपादान वियोग करने में ही अपना मुख्य कर्त्तव्य समझता है। इसके विपरीत मैं सम्बन्ध करने में गौरव अनुभव करती हूँ। जब आत्मा के साथ ज्ञान, दर्शन और चारित्र का पूर्ण सम्बन्ध हो जाता है तो आत्मा अजर अमर मोक्ष पद का अधिकारी हो जाती है। भगवन् ! मेरी गौरव गाथा कितनी ऊँची है कि सब की सब विभक्तियाँ मेरे लिए ही प्रयत्नशील हैं। कोई भी मेरी आज्ञा से बाहर नहीं। जैसे कि जब कर्ता सम्यग्ज्ञान से सम्बन्ध करना चाहता है कर्म अपनी ओर से सब प्रकार का सहयोग अर्पण कर देता है। 'शाखं पठति' वाक्य का अर्थ होता है, जिज्ञासु शास्त्र पढ़ता है। यहाँ जिज्ञासु कर्ता है और शास्त्र कर्म है। शास्त्र का सहयोग न हो तो कर्ता सम्यग्ज्ञान से सम्बन्ध कैसे कर सकता है ? ५० डसोसाम् ॥ ॥३॥१६३ । अप्रधानेऽर्थे वर्तमानाद् एकद्विबहुषु यथासंख्यं ङस् ओस् भाम् इत्येते प्रत्यया भवन्ति योगे सम्बन्धे। राज्ञः पुरुषः। देवदत्तयोः पुत्रः। पाषाणानां राशिः। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com

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