Book Title: Vibhakti Samvad
Author(s): Atmaramji Maharaj
Publisher: Lala Sitaram Jain

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Page 52
________________ षष्ठी विभक्ति ( सम्बन्ध ) ३७ तृतीया विभक्ति करण भी बड़ा स्नेह रखती है । वह अपने द्वारा कार्य सिद्धि में जुट जाती है । 'अनेन सूत्रेण सिद्धं वाक्य से करण का सहयोग स्पष्टतया ध्वनित हो जाता है । चतुर्थी विभक्ति भी कुछ कम सहकारिणी नहीं है । कर्ता जब आलस्य में पड़ जाता है या विघ्न बाधाओं से हताश हो जाता है तो चतुर्थी विभक्ति ही उसे उत्साहित करती है । 'मोक्षाय अथवा महत्त्वाय शास्त्रं पठति' वाक्य में मोक्ष और महत्त्व सम्बन्धी चतुर्थी विभक्ति उत्साह की विद्युत् चमकाने वाली है । अपादान एक प्रकार से मेरे विरुद्ध है परन्तु मेरे अनुकूल भी वह बहुत अधिक है । जब आत्मा ज्ञान से सम्बन्ध करती है तो पहले अज्ञान से मुक्त होना पड़ता है । यह नहीं हो सकता कि अज्ञान भी बना रहे और ज्ञान भो उत्पन्न हो जाय । 'अज्ञानान्मुक्त एव ज्ञानवान् भवति' वाक्य सूचित करता है कि अज्ञान से मुक्ति पा लेने के बाद ही कर्ता सम्यग्ज्ञान से सम्बन्ध स्थापित करता है । आधार भी मेरा अनुगामी है । सम्यग्ज्ञान की प्राप्ति के लिए एकान्त स्थान का सेवन करना चाहिए । बिना एकान्त स्थान के — स्वच्छ सुन्दर वातावरण के हृदय में सम्यग्ज्ञान का सूर्य नहीं चमक सकता | संसार-चक्र में आत्मा का जन्म मरण तभी तक होता है जबतक कि आत्म- प्रदेशों का सम्बन्ध परस्पर में दृढ़ नहीं होता । कर्म- बन्धन से मुक्त हो जाने के बाद जीवात्मा के प्रदेश सादि-अनन्त दृढ़ सम्बन्ध में बँध जाते हैं तो फिर कभी आत्मा को जन्म-मरण के चक्र में फँसना नहीं पड़ता । वह अजर Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com

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