Book Title: Vibhakti Samvad
Author(s): Atmaramji Maharaj
Publisher: Lala Sitaram Jain

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Page 47
________________ विभक्ति संवाद हूँ। विकल्प से मैं अपना स्थान तृतीया को भी दे देती हूँ। मानवजीवन के लिए विद्या ग्रहण करना बहुत आवश्यक है। विद्या के बिना मनुष्य का जीवन सर्वथा तुच्छ है । गुरु और शिष्य से ही यह संसार बसा हुआ है। शिष्य गुरु के पास विद्याध्ययन करता है। हर्ष है कि विद्या प्रदान करनेवाले गुरु में मेरा प्रयोग होता है-उपाध्यायादधीते । नियम पूर्वक अध्ययन में ही मैं अपना अधिकार रखती हूँ । अनियम पूर्वक श्रवण में मुझे जाना अभीष्ट नहीं। जो मनुष्य नियमपूर्वक अध्ययन करता है, वही श्रुतज्ञान का प्रकाश प्राप्त कर सकता है। __आङ उपसर्ग के योग में भी मेरा ही प्रयोग किया जाता है । आङ् के सत्ताईस अर्थ हैं—अवधि, मर्यादा, प्राप्ति, इच्छा, सत्त्वं, तस्मिन् करणे स्तोकादिभ्यः एकद्विबहुषु डसिभ्यांभ्यसो भवन्ति वा। स्तोकात् स्तोकेन, अल्पात् अल्पेन, कतिपयात् कतिपयेन, कृच्छ्रात् कृच्छ्रेण मुक्तः । असत्त्व इति किम् ? स्तोकेन विषेण हतः। अल्पेन शेथुना मुक्तः। ४५ आख्य तथुपयोगे ॥१॥३॥१५७॥ आख्याता प्रतिपादयिता । उपयोगो नियमपूर्वकं विद्याग्रहणम् । आख्यातरि वर्तमानादुपयोगे विषये ङसिभ्यांभ्यसो भवन्ति। उपाध्यायादधीते-आगमयति । आचार्याच्छृणोति-अधिगच्छति । उपयोगे किम् ? नटस्य शृणोति । ४६ माङा ॥ १३३१५८॥ अवधाविति वर्तते। आङा योगे अवधौ उसिभ्यांभ्यसो भवन्ति । आ पाटलीपुत्रात् वृष्टो देवः ।आकुमारेभ्यो यशः शाकटायनस्य गतम् । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com

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