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विभक्ति संवाद
होता है कि जब आत्मा संयोग से विप्रमुक्त हो जाती है, वास्तव में तभी सुखी बनती है।
जो मनुष्य ऋण लेकर फिर उसको नहीं चुकाते हैं, कर्ज अदा करने से घबराते हैं, वे मुक्त नहीं हो सकते । मैं उनको सर्वथा बाँधे रखती हूँ। द्रव्य ऋण, जो संसार में प्रचलित है, उसमें भी मेरी गति है । और जो भाव ऋण-कर्म है, वहाँ पर भी मैं विद्यमान हूँ। जो आत्मा हिंसादि कर्मों के ऋण से युक्त हैं, उनको मैंने संसार-चक्र में बाँध रक्खा है, छोइँ गी नहीं।
देवाधिदेव ! आपका प्ररूपित जो अनेकान्तवाद है, वह मुझमें अच्छी तरह घटित हो रहा है । अनेकान्त का अर्थ है अनेक धर्मों का एक वस्तु में होना । आप देखिए, मेरे में बद्धत्व गुण भी है और मुक्तत्व गुण भी, इन दो विरोधी गुणों की युक्तता के कारण मैं अनेकान्तवाद का सुन्दर उदाहरण उपस्थित कर रही हूँ। 'अज्ञानाद्बद्धः, ज्ञानान्मुक्तः' इन दो उदाहरणों में मेरा अनेकान्तवाद सम्बन्धी गौरव प्रस्फुटित हो रहा है। कर्ता को बद्ध और मुक्त करने का मेरा अखण्ड सामर्थ्य है।
चैतन्य और जड़ का पृथक्करण भी मेरे द्वारा ही होता है । योगीजन जीवाजीव का विभेदज्ञान मुझसे ही तो करते हैं। 'अस्मादयं पृथक्' यह प्रतीति मेरे ही कारण से होती है।
४३ ऋणे ॥ १।३। १५५॥
हेतौ ऋणे वर्तमानान्नित्यं उसि भ्यां भ्यसो भवन्ति वा। शताबद्धः । सहस्राद्धः।
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