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पञ्चमी विभक्ति (अपादान)
वाक्य में मुझे ही स्थान मिला है । मेरी प्रतिष्ठा कितनी बढ़ी
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हुई है !
जो हेतु गुण स्वरूप हो— द्रव्य स्वरूप न हो, साथ ही स्त्रीलिङ्ग भी न हो तो उसमें वर्तमान शब्द से भी मैं ही होती हूँ। मैं अपना स्थान उदारता के कारण विकल्प से तृतीया को भी दे देती हूँ ।
अपाय" में भी मेरा ही प्रयोग किया जाता है । अपाय का अर्थ विश्लेष—- विभाग है । प्रयोग किया जाता है'धर्मादपैति ।' इसका अर्थ होता है, धर्म से दूर होता हैगिरता है । उक्त प्रयोग से मैं सूचित करती हूँ कि जो मनुष्य धर्म से भ्रष्ट होता है, वह संसार में दुःख पाता है ।
बँधी हुई अनादि काल से
आत्मा संयोग के बन्धन में जन्म मरण का चक्कर काट रही है । कहीं भी आत्मा को सुख नहीं मिल सका । आगम में पाठ आता है - 'संजोगा विप्पमुक्करस' - 'संयोगाद् विप्रमुक्तस्य' इस पाठ पर से ध्वनित
४१ हेतौ गुणेऽस्त्रियाम् ॥ १ । ३ । १५४ ॥
अस्त्रीलिङ्गे गुणे द्रव्याश्रिते पर्याये हेतौ वर्तमानाद् ङसिभ्याम्भ्यसो वा भवन्ति । जाड्याद् जाड्येन वा बद्धः । ज्ञानाद् ज्ञानेन वा मुक्तः । अस्त्रियामिति किम् ? जडतया बद्धः । बुद्धया मुक्तः ।
४२ अपायेऽवधौ ॥ १ । ३ । १५६ ॥
अपायो विभागः विश्लेषः । तस्मिन् विषये निर्दिष्टे प्रतीयमाने वा योsवधिरप्रधानं तस्मिन् ङसि भ्यां भ्यसो भवन्ति । प्रामादपैति । ग्रामादागच्छति । पर्वतादव रोहति । यवेभ्यो गां निवारयति । प्रतीयमानेऽर्थे कुसूकात्पचति, ततो गृहीत्वेत्यर्थः ।
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