Book Title: Vibhakti Samvad
Author(s): Atmaramji Maharaj
Publisher: Lala Sitaram Jain

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Page 38
________________ चतुर्थी विभक्ति (सम्प्रदान) दिया है परन्तु मेरा सम्प्रदानरूप अर्थ फिर भी सुरक्षित है । अहा, कितना आनन्द है ! मेरी कितनी महत्ता है जो कर्ता भी मुझे नमस्कार करता हैं। शक्तार्थक , वषट् , नमः, स्वस्ति, स्वाहा, स्वधा और हित के योग में भी मेरा ही अधिकार है। भद्राद्यर्थक शब्दों के तथा हित शब्द के योग में अप्रधान अर्थ में वर्तमान शब्दसे आशीर्वाद विषय में भी मैं ही हुआ करती हूँ। आशीर्वाद का कितना सुन्दर कार्य है ! उसके सम्पादन का श्रेय भी मुझे हो है। मैं अपनी उदारता से उक्त शब्दों के योग में षष्ठी को भी स्थान दे देती हूँ। २८ शक्तार्थवषड्नमःस्वस्तिस्वाहास्वधाहितैः ॥ १॥३॥१४२ ॥ शक्तार्थेषडादिभिश्च योगेऽप्रधानेऽथें वर्तमानाद् डेभ्यांभ्यसो भवन्ति । शक्तः शक्नोति, प्रभुः प्रभवति जिनदत्तो देवदत्ताय । अलं मल्लो मल्लाय । वषडग्नये । नमोऽर्हद्भ्यः । स्वस्ति प्रजाभ्यः । इन्द्राय स्वाहा । स्वधा पितृभ्यः । आतुराय हितम् । २९ भद्रायुज्यक्षेमसुखार्थहितार्थहितैराशिषि ॥ ॥३॥१४॥ भद्राद्यर्थैहितशब्देन च योगेऽप्रधानेऽर्थे वर्तमानादाशीविषये उभ्यांभ्यसो भवन्ति वा । भद्रमस्तु जिनशासनाय । भद्रमस्तु जिनशासनस्य । एवं भद्रं कल्याणं आयुष्यं दीर्घमायुः चिरजीवितमस्तु देवदत्ताय देवदत्तस्य वा । क्षेमं कुशलं निरामयं भूयात् संघाय संघस्य वा। सुख शर्म शं भवतात् प्रजाभ्यः प्रजानाम् वा । अर्थः प्रयोजनं कार्य जायताम् दूताय दूतस्य वा। हितं पथ्यं भूयात् जिनदत्ताय जिनदत्तस्य वा। हितग्रहणमाशिषि पक्षे षष्ठ्यर्थम् । अस्त्येवोत्तरेण चतुर्थी। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com

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