Book Title: Vibhakti Samvad
Author(s): Atmaramji Maharaj
Publisher: Lala Sitaram Jain

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Page 33
________________ विभक्ति संवाद इतना ही नहीं, मैं कर्ता के साथ पाँच इन्द्रिय, पाँच शरीर, तीन योग इत्यादि में करणरूप से रहती हूँ। मेरे बिना कर्ता कुछ भी नहीं कर सकता । न वह संसार में ही विजय प्राप्त कर सकता है और न धार्मिक क्रियाओं को करके आत्म-विकास ही कर सकता है। __मेरे रूप भी बड़े मनोहर और प्रभावशाली हैं, जैसे कि धर्मेण धर्माभ्याम् धर्मः सुखं लभ्यते। उक्त रूप कर्ता को शिक्षा दे रहे हैं कि हे कर्तः, एक धर्म से सुख मिलता है, दो धर्मों से सुख मिलता है, बहुत धर्मों से सुख मिलता है। अर्थात् सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र रूप धर्मों के द्वारा आत्मा पूर्णतया पवित्र हो जाती है। अतः सिद्ध हुआ कि आत्मविकास करने में, जीवन को पूर्ण सुखमय बनाने में करण कर्ता का अतीव सहायक है। भगवन् ! दूर क्यों जाया जाय ? आपके ही आगमों में मेरे गुणगान गाए हैं। 'संजमेणं", तपसा अप्पाणं भावेमाणे विहरई' इस आगम वाक्य में भी करण ही मुख्य माना गया है। उक्त वाक्य में संयम और तप करण हैं, आत्मा कर्म है और भावेमाणे व्यक्ति कर्ता है। ___ आगम में एक और भी विलक्षण विधान आया है । वह भी मेरे ही सम्बन्ध में है। वहाँ लिखा है कि-'ज्ञान से भाव १८ औपपातिकसूत्र समवसरण और भगवतीसूत्र प्रथम शतक । १९. नाणेण जाणइ भावे दंसणेण य सद्धह ( हे )। चरित्तेण निगिहाइ, तवेण परिसुज्मद ॥ उत्तरा० अध्य० २८ ॥ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com

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