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तृतीया विभक्ति (करण) भगवन् ! आपके पास अधिक कुछ कहना मूर्खता है। आप तो ज्ञान के साक्षात् सूर्य हैं। संक्षेप में कहना इतना ही है कि करण, हेतु, कर्ता और इत्थंभूतलक्षण में मैं ( तृतीया) प्रयुक्त होती हूँ। ___ आत्मा की पवित्रता के लिए संसार बहुत उत्कण्ठित है परन्तु वह मिले कैसे ? जब मन से, वचन से और काय से सत्कर्मों का आचरण किया जाय । अस्तु, मनसा, वचसा, कायेन में देखिए मैं ही आत्मशुद्धि करने का सामर्थ्य रखती हूँ। __ आत्मा का भान होना बड़ा कठिन है। बड़े बड़े महर्षि लोग आत्मा को मेरे द्वारा ही देखते हैं। ज्ञान के साथ मैं संयुक्त होती हूँ तो आत्माका दर्शन हो जाता है। तभी तो कहा है'ज्ञानेन आत्मा लक्ष्यते, चक्षुषा पश्यति तथा मनसा जानाति' आदि प्रयोग भी यही सूचित करते हैं कि यावन्मात्र पदार्थों का बोध मेरे द्वारा ही होता है। आँख से देखता है, मनसे जानता है-इस प्रकार आँख और मन में, जिनसे कि जाना जाता है, मैं ही (तृतीया) तो हूँ।
१७ हेतुकर्तृकरणेत्थंभूतलक्षणे ॥ १३॥१२८॥ ।
फलसाधनयोग्यः पदार्थों हेतुः । यः करोति स कर्ता । येन क्रियते तत्करणम् । इमं कश्चित् प्रकारमापन्नः इत्थंभूतः, स लक्ष्यते येन तदित्थंभूतलक्षणम् । एतस्मिन् विषये वर्तमानात् टाभ्यांभिसो भवन्ति । हेतोधनेन कुलम् । विद्यया यशः । कर्तरि-देवदत्तेन कृतम् । जिनदत्तेन भुक्तम् । करणे-दात्रेण लुनाति । परशुना छिनत्ति । इत्यंभूतलक्षणे-अपि भवान् कमण्डलुना छात्रमद्राक्षीत् ? अपि च भवानवदातेन वर्णेन कुमारी
मैक्षिष्ट ?
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