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विभक्ति संवाद
हूँ तो हर्ष का पार नहीं रहता। अर्थावबोध की सब कठिनाइयाँ हल हो जाती हैं।
प्रत्येक शब्द का निर्देश पहले कर्ता में ही होता है। कर्ता ही सब विषयों का अनुभव करनेवाला है। मेरा आदेश ही सबको मान्य रखना होता है। मेरे बिना अन्य सब कारक शून्य से दृष्टि-गोचर होते हैं।
कर्ता के होने पर ही अन्य सब क्रियाएँ सफल हो सकती हैं। यदि प्रारंभ में एक (१) का अंक हो, तभी अन्य शून्य वृद्धि पाते हैं, सफल होते हैं, अर्थ का बोध कराते हैं, अन्यथा नहीं। आप देखते ही हैं कि १०, १००, १०००, १०००० आदि अङ्कों में एक के अस्तित्व से शून्य किस प्रकार मूल्य बढ़ा रहे हैं। यही दशा मेरी है। मेरे अस्तित्व से ही अन्य क्रियाएँ मूल्य पाती हैं।
तिङन्त में शप' प्रत्यय की बड़ी महत्ता है। परन्तु आप जानते हैं, वह भी तो मेरे ही अर्थ का बोध कराता है। यदि मैं न हूँ और मेरा कर्तृत्व स्वीकृत न किया जाय तो फिर शप कहाँ लगे ? धातुओं से बननेवाले कृदन्त शब्दों में भी मैं प्रभुत्व रखती हूँ।
साहित्य में सम्बोधन का बहुत महत्त्व है । सम्बोधन के २ कर्तरि शप् ॥४॥३॥२०॥ धातोः कर्तरि वर्तमाने श्लेले परतः मध्ये शप् प्रत्ययो भवति । धारयः । ३ आमन्त्र्ये ॥ ११३२९९ ॥
आमन्त्र्यमाणेऽर्थे वर्तमानात् शब्दादेक द्विबहुषु स्वौजसो भवन्ति । हे देवदत्त ! हे देवदत्तौ ! हे देवदत्ताः ।
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