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प्रथमा विभक्ति (कर्ता) बिना तो वार्तालाप भी नहीं हो सकता। वह सम्बोधन भी तो मुझ में ही प्रयुक्त होता है। सम्बोधन होने का गौरव आज तक किसी भी अन्य द्वितीयादि विभक्ति को नहीं मिला।
संस्कृत साहित्य में तीन वचन होते हैं-एकवचन, द्विवचन और बहुवचन। सर्व प्रथम व्याकरण में तीनों वचन प्रथमा विभक्ति में ही लगाए जाते हैं। सु, औ, जस् प्रत्यय प्राप्त करने का गौरव मुझे ही मिला है। ____ भगवन् ! मेरे रूप भी कितने मनोहर होते हैं। धर्म शब्द को ही लीजिए। जब वैयाकरण 'धर्मः धर्मी धर्माः, सुखयति सुखयतः सुखयन्ति' वाक्य का प्रयोग करते हैं वब कितना मधुर सन्देश प्राप्त होता है।
जिनराज ! आपने अपने श्रीमुख से त्रिविधं धर्म का उपदेश दिया है,–'दर्शन, ज्ञान, चारित्र । मोक्ष का वास्तविक मार्ग यही त्रिविध धर्म है।' मुझे हर्ष है कि आपने त्रिविध धर्म का उपदेश करते हुए मेरा ही उपयोग किया है। व्याकरण के साथ जब आप धर्मोपदेश का समन्वय करते हैं, तो ठीक अर्थ निकल
.४ एकद्विबौ ॥१॥३॥९॥
एकत्वादिसंख्येऽर्थे वर्तमानाच्छब्दायथासंख्यमेकद्विबहुषु सु औ जस् प्रत्यया भवन्ति । पुरुषः । पुरुषो । पुरुषाः । ५ नादंसणिस्स नाणं, नाणेण विणा न हुँति चरणगुणा। अगुणिस्स नस्थि मोक्खो, नस्थि भमोक्खस्स निब्वाणं ॥३०॥
-उत्तराध्ययन अध्य० २।८। तिविहा भाराहणा पण्णत्ता, तंजहा-नाणाराहणा, दसणाराहणा, चरित्ताराहणा। भग० श०८०१० सू०३५५॥
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