Book Title: Tirthankar Charitra Part 2
Author(s): Ratanlal Doshi
Publisher: Akhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
View full book text
________________
नमुचि का उपद्रव और विष्णुकुमार का प्रकोप
हो गए। ज्येष्ठ पुत्र विष्णुकुमार भी प्रव्रजित हुए । पद्मोत्तर मुनिराज चारित्र की विशुद्ध आराधना करते हुए कर्म क्षय कर मोक्ष प्राप्त हुए । विष्णुकुमार मुनि ने विपुल तपस्या करके अनेक प्रकार की लब्धियाँ प्राप्त की । कालान्तर में श्री सुव्रताचार्य अपने शिष्यों के साथ हस्तिनापुर पधारे और चातुर्मास के लिए ठहर गए । प्रधानमन्त्री नमुचि के हृदय में उनके प्रति वैरभाव था । नमुचि ने आचार्य से अपनी शत्रुता निकालने के लिए, राजा महापद्म से अपना वह वर माँगा, जो नरेश ने अपने पास धरोहर के रूप में रखा था । उसने महापद्म से कहा - " मैं एक यज्ञ करना चाहता हूँ । जब तक यह यज्ञ पूरा नहीं हो जाय, तब तक आपके सारे राज्य का राज्याधिकारी मैं रहूँ । यही मेरी माँग है ।" नरेश ने अपना राज्याधिकार नमुचि को दे दिया और स्वयं अंतःपुर में चला गया ।
नमुचि ने यज्ञ का आयोजन किया। उसके यज्ञ की सफलता एवं श्रेय-कामना व्यक्त करने के लिए राज्य के मन्त्रीगण, श्रेष्ठिजन और सभी धर्मो धर्माचार्य आये । एक सुव्रताचार्य ही नहीं आये । सुव्रताचार्य के नहीं आने पर नमुचि उनके पास गया और आक्रोश पूर्वक बोला ; --
" जो राज्याधिपति होता है, उसका राज्य के सभी धर्माचार्य आदर करते हैं । वे उसके आश्रय में रहते हैं और आश्रय चाहते हैं । राज्य 'सभी तपोवन राजा द्वारा रक्षणीय हैं और अपने तप का छठा भाग राजा को अर्पण करते हैं । किंतु तुम अधम पाखंडी हो । मेरे निन्दक हो । अभिमान से भरपूर हो कर मर्यादा का लोप करते हो। तुम राज्य के विरोधी हो । तुम्हें मेरे राज्य में नहीं रहना चाहिए । निकल जाओ यहां से । यदि तुम्हारे में से कोई भी साधु मेरे राज्य में रहा, तो वह मृत्यु दंड का भागी होगा ।"
“हमारे मन में आपके प्रति दुर्भावना बिलकुल नहीं है । हमारी आचार-मर्यादा के अनुसार हम आपके अभिषेक के समय नहीं आये । हमारे नहीं आने का यहीं कारण है । हम किसी की निन्दा नहीं करते, अपितु निन्दा करना पाप मानते हैं । इसलिए आपको हम पर अप्रसन्न नहीं होना चाहिए । हम चातुर्मास पूर्ण होते ही यहाँ से चले जावेंगे ।"आचार्य ने कहा ।
——
37
“ आचार्य ! निर्दोष बनने की आवश्यकता नहीं । में तुम्हें सात दिन का समय देता हूँ । यदि सात दिन के भीतर तुम यहाँ से नहीं चले गए, तो तुम्हें कठोरतम दण्ड भोगना पड़ेगा ' -- इस प्रकार अपना अंतिम निर्णय सुना कर नमुचि चला गया । आचार्य ने अपने मुनियों से पूछा - " अब क्या उपाय करना चाहिए ? चातुर्मास काल में विहार करना निषिद्ध है और नमुचि अत्यंत द्वेषी तथा वैरभाव से भरा हुआ है ।
Jain Education International
१७
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org