Book Title: Tirthankar Charitra Part 1
Author(s): Ratanlal Doshi
Publisher: Akhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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तीर्थंकर चरित्र
चाहें, वे तय्यार हो जावें । जिन्हें पूँजी की आवश्यकता होगी, उन्हें पूंजी मिलेगी। जिनको वाहन चाहिए, वह वाहन पा सकेगा और जिसे भोजन, रक्षण और अन्य प्रकार की सहायता की आवश्यकता होगी, तो वह भी मिलेगी। जो सभी प्रकार के साधनों से वञ्चित होंगे, उनकी सगे भाई के समान सहायता की जायगी।"
धन्ना सेठ की इस उदार उद्घोषणा का लाभ हजारों मनुष्यों ने लिया। शुभ मुहूर्त में सार्थ ने प्रयाण किया। उस समय जैनाचार्य श्री धर्मघोष मुनिराज, अपने शिष्य-परिवार के साथ धन्य-श्रेष्ठी के पास आये । आचार्य को देखते ही सेठ उठा । नमस्कार किया और आने का प्रयोजन पूछा । आचार्यश्री ने कहा--
"हम भी आपके सार्थ के साथ आना चाहते हैं।' आचार्य का अभिप्राय जान कर धन्ना सेठ बहुत प्रसन्न हुआ। उसने कहा-- "भगवन् ! मैं धन्य हुआ। आप अवश्य पधारें । मैं आपकी सेवा करूँगा।" सेठ ने अपने रसोइये को बुला कर कहा--
" देखो, ये आचार्य और इनके ये सन्त भी हमारे साथ चल रहे हैं । इनके लिए भी भोजन....... ।"
सेठ की बात पूरी होने के पूर्व ही आचार्य ने कहा--
"भद्र ! हम उस आहार को ग्रहण नहीं करते, जो हमारे लिए बनाया गया हो, या हमारे संकल्प से बनवाया हो । जिस आहार में हमारे उद्देश्य का एक दाना भी मिला हो, वैसा आहार या पानी हमारे लिए ग्रहण करने योग्य नहीं रहता।"
"महानुभाव ! कुएँ, तालाब अथवा नदी आदि का सचित्त जल भी हमारे लिए अनुपयोगी होता है । हम वही आहार-पानी लेते हैं, जो निर्दोष हो, अचित्त हो और गृहस्थ ने अपने लिये बनाया हो । हमारे लिए जिनेश्वर भगवान् की यही आज्ञा है।"
यह बात हो ही रही थी कि इतने में एक अनुचर पके हुए आमों का थाल भर कर लाया । सेठ ने वे फल ग्रहण करने की आचार्यश्री से प्रार्थना की । तब आचार्यश्री ने कहा--
"ये फल जीव युक्त हैं । इसलिए हमारे स्पर्श करने के योग्य भी नहीं है।" सेठ ने आचार्यश्री के वचन सुन कर आश्चर्य प्रकट करते हुए कहा--
"अहो श्रमणवर ! आप तो कोई महा दुष्कर व्रत के धारक हो। ऐसा व्रत प्रमादी पुरुष तो एक दिन भी धारण नहीं कर सकता। आप हमारे साथ अवश्य पधारें । हम
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