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स्याद्वादबोधिनी-५ वस्तुतः, स्याद्वाद सिद्धान्त सभी दार्शनिक मानते हैं। यह सर्वथा अखण्डनीय है। फिर भी कुछ लोग 'स्यात्' पद के प्रयोग के कारण भ्रान्त होकर कहते हैं कि स्याद्वाद संशयवाद है, जिसमें कोई निश्चय नहीं होता। किन्तु इस प्रकार का कथन अनुचित है, क्योंकि यहाँ प्रयुक्त 'स्यात्' पद क्रियावाचक पद नहीं है जिससे सम्भावना मात्र अर्थ की प्रतीति होती है, अपितु 'स्यात्' पद विभक्ति प्रतिरूपक अव्यय पद है। जैसे-अहंयुः, अस्ति, क्षीरा, गौः, इत्यादि । यदि यह क्रियावाचक पद होता तो समास होना सम्भव नहीं। क्योंकि सुबन्त का सुबन्त के साथ समास होता है तिङ्न्त के साथ नहीं। एकान्तवाद से विश्व-जगद्व्यवहार भी सम्भव नहीं।
यहाँ कुछ लोगों का आक्षेप है कि 'अनन्त विज्ञान' विशेषण से ही सम्पूर्ण गतार्थता सम्भव है, अन्य विशेषण व्यर्थ हैं। किन्तु उनका यह कथन समीचीन नहीं है, क्योंकि आजीवक एवं वैशेषिक मतानुगामियों द्वारा प्रदर्शित भ्रान्ति की निवृत्ति के लिए तत्-तत् विशेषणों का उपाख्यान सार्थक है। दूसरे दर्शनों का व्यवच्छेद करना ही अन्ययोगव्यवच्छेदिका का उद्देश्य है ।