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स्याद्वादबोधिनी-४ प्राचार्य श्रीमल्लिषेणसूरिजी महाराज ने 'अन्ययोगव्यवच्छेदिका' की 'स्याद्वादमञ्जरी' नामक सर्वाङ्गपूर्ण विस्तृत टीका लिखी है, किन्तु सम्प्रति जिज्ञासुओं की कठिनाई को ध्यान में रखते हुए यह सरल एवं संक्षिप्त व्याख्या 'स्याद्वादबोधिनी' विद्यानुरागियों का महोपकार करेगी।
* श्लोकार्थ-मैं अनन्तज्ञान-विज्ञान के धारक, दोषरहित, अबाध्य सिद्धान्त-समन्वित (स्याद्वादयुक्त) देवों के द्वारा वन्दनीय एवं पूजनीय यथार्थवादियों में श्रेष्ठ स्वयम्भू श्रीवर्द्धमानजिनेन्द्र की (महावीरस्वामी की) स्तुति करने का प्रयास करूंगा ।। १ ।।
9 भावार्थ-प्रस्तुत श्लोक के पूर्वार्ध में श्रीवर्धमानमहावीर स्वामी भगवान के चार विशेषण दिये गये हैं । 'अनन्तविज्ञान' पद से घातिकर्मों के क्षय से समुत्पन्न केवलज्ञान से आलोकित अनन्त ज्ञानातिशय, 'प्रतीतदोष' से अठारह दोषों के क्षय से अपायापगम अतिशय, 'अबाध्यसिद्धान्त' से अनतिक्रमणीय, स्याद्वाद सिद्धान्त की प्ररूपणारूप वचनातिशय तथा 'अमर्त्यपूज्य' विशेषण से देवेन्द्रादि कृत महाप्रातिहार्य रूप पूजातिशय अभिव्यजित होता है ।