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स्याद्वादबोधिनी-४१
- भाषानुवाद - * श्लोकार्थ-धर्म और धर्मी को सर्वथा भिन्न स्वीकार करने पर 'अयं धर्मी' = 'यह धर्मी है' 'ये इस धर्मी के धर्म हैं' और 'धर्म-धर्मी' में सम्बन्ध व्यक्त करने वाला समवाय है।' इस प्रकार के पृथक्-पृथक् तीन ज्ञान नहीं हो सकते।
9 भावार्थ-यदि परस्पर भिन्न धर्म और धर्मी का समवाय सम्बन्ध से सम्बन्ध मानते हैं तो यह युक्तिसंगत नहीं है, क्योंकि धर्म तथा धर्मी के ज्ञान की भाँति हमें समवाय का ज्ञान नहीं होता। अर्थात्-समवाय का प्रत्यक्ष ज्ञानाभाव है। यदि एक समवाय को मुख्य तथा समवाय में समवायत्व को गौण मानकर निर्वाह करना चाहें तो भी यह कपोल कल्पना लोकव्यवहार के सर्वथा विरुद्ध है।
वैशेषिक दर्शनानुयायी धर्म-धर्मी में एकान्त भेद मानते हैं तथा परस्पर भिन्न धर्म-धर्मी में सम्बन्धाधायक 'समवाय' नामक सम्बन्ध को पृथक् से मानते हैं । यह समवाय नामक सम्बन्ध, एक तथा नित्य होता है। यह समवाय सम्बन्ध उनके मतानुसार (वैशेषिक) जाति-व्यक्ति में, गुण-गुणी में, क्रिया-क्रियावान् में नित्य रूप से विद्यमान