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स्याद्वादबोधिनी-५३ स्थिति नहीं है। प्रात्मा शरीर-परिमाणवान् है। बाहर स्वीकार करने पर आत्मा के सम्बन्ध में जड़त्व आपत्ति सम्भव है। घट-घड़े के रूपादि घट-घड़े में ही रहते हैं अन्यत्र नहीं। अतः आत्मा देह परिमाण है । अन्यत्र स्वीकार करना मिथ्या प्रलाप मात्र है। यद्यपि सुगन्धित वायु, सुगन्धित जल इस प्रकार की प्रतीति भी होती है, इसे अतिव्याप्ति (व्यभिचार दोष) नहीं माना जा सकता, क्योंकि उभयत्र सूक्ष्म पार्थिव गुणों की सत्ता विद्यमान है तथा पुष्पादि सम्पर्क से भी यह प्रतीति सम्भव है ।
प्रात्मा का अदृष्ट नामक एक विशेष गुण है। यह अदृष्ट होने वाले समस्त पदार्थों में निमित्त कारण है और यह सर्वव्यापक है। अन्यथा इससे दूसरे द्वीपों में भी निश्चित स्थान में रहने वाले पुरुषों के भोगने योग्य सुवर्ण, रत्न, चन्दन तथा स्त्री इत्यादि कैसे प्राप्त हो सकते हैं ? यदि अात्मा सर्वव्यापक नहीं होता तो प्रात्मा का अदृष्ट गुण अन्यत्र प्रवृत्ति नहीं कर सकता। गुण, गुणी को छोड़कर नहीं रहता है। अतएवं आत्मा सर्व व्यापक है । वैशेषिक आदि दर्शन के मत से आत्मा के अदृष्ट गुण को सर्वत्र देखने के कारण प्रात्मा की सर्वव्यापकता स्वयंसिद्ध है। इस तर्क को खण्डित करते हुए कहा है-'तन्न घटते' ।