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स्याद्वादबोधिनी-७२
- भाषानुवाद - * श्लोकार्थ-यदि माया सत् रूपा है तो ब्रह्म और माया नामक दो पदार्थों के होने के कारण (सद्भाव से) अद्व तसिद्धान्त की सिद्धि नहीं हो सकती। यदि माया असत् रूपा है तो उससे लोकत्रय के पदार्थों की उत्पत्ति नहीं हो सकती। यदि माया असत्रूपा होती हुई भी अर्थक्रियाकारिता-सम्पन्न है, अर्थक्रिया करने में समर्थ है तो माता जैसे वन्ध्या नहीं हो सकती तथा वन्ध्या माता नहीं हो सकतो; इस व्यावहारिक एवं तात्त्विक उदाहरण से यह स्पष्ट है कि पदार्थ में सत् तथा असद् रूप विरोधी गुण एक साथ नहीं रह सकते । ___ वेदान्त दर्शन की मान्यता है कि ब्रह्म एक है, तथा सत् है। माया शबलित ब्रह्म के द्वारा विश्व-जगत् का विस्तार होता है। सामान्य रूप से विश्व-जगत् का द्वैत प्रतीत होता है, क्योंकि न केवल पुरुष, न केवल स्त्री सन्तानोत्पत्ति द्वारा संसार-संवर्द्धन में सक्षम है। अतः द्वत परमार्थ है, काल्पनिक नहीं। विश्वरचना के विषय में वेदान्ती भी कहते हैं कि माया शबलित ब्रह्म (मायावच्छिन्न) विश्व-जगत् की रचना करता है। इस स्थिति में द्वतवाद स्पष्ट होता है, क्योंकि इस दशा में भी एक ब्रह्म तथा दूसरी माया स्पष्ट है, जिससे द्वयतत्त्वसिद्धि