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स्याद्वादबोधिनी-७६
अद्वैत वेदान्ती, मीमांसक एवं सांख्यदार्शनिकों की मान्यता है कि वस्तु सर्वथा सामान्य है, क्योंकि विशेषसामान्य से भिन्न प्रतिभासित नहीं होते।
बौद्धों का अभिमत है कि हर वस्तु सर्वथा विशेष रूप है; क्योंकि विशेष को छोड़ सामान्य कहीं भी दृष्टिगोचर नहीं होता है और वस्तु की अर्थक्रियाकारिता की मान्यता है कि सामान्य-विशेष परस्पर भिन्न और निरपेक्ष हैं, अतएव सामान्य और विशेष को एक न मानकर परस्पर पृथक् अंगोकार करना चाहिए। श्री जैनसिद्धान्त के अनुसार तीनों सिद्धान्त कथंचित् सत्य हैं। वस्तु को सर्वथा सामान्य मानने वाले द्रव्यास्तिकनय की अपेक्षा से तथा सामान्य-विशेष को परस्पर भिन्न और निरपेक्ष मानने वाले नैगमनय की अपेक्षा से सत्यपक्षी हैं। अतः सामान्य विशेष को कथंचित् भिन्न-भिन्न ही स्वीकार करना चाहिए। क्योंकि पदार्थों का ज्ञान करते समय सामान्य और विशेष दोनों का ही एक साथ ज्ञान होता है । बिना सामान्य के विशेष और बिना विशेष के सामान्य का कहीं भी ज्ञान नहीं होता। जैसे गौ को देखकर हमें अनुवृत्ति रूप गौ का ज्ञान होता है, उसी प्रकार भैस आदि की व्यावृत्ति रूप विशेष का नहीं होता है। अतएव सामान्य-विशेष कथंचिद् भिन्न एवं कथंचित् अभिन्न