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स्याद्वादबोधिनी-८३
कल्पना दूसरों को वञ्चित करने वाली है तथा मान्द्य की सूचक है।
सांख्यमत इस प्रकार है-प्रकृति विश्वकी है। वह सतोगुण, रजोगुण और तमोगुण नामक इन तीन गुणों से संवलित है। वह जड़ है, चेतन नहीं। गुणत्रय की साम्यावस्था प्रकृति, अविकृति है। कहा भी है कि
मूलप्रकृतिरविकृतिर्महदाद्याः प्रकृति विकृतयः सप्त । षोडशकस्तुविकारो न प्रकृतिः न विकृतिः पुरुषः ॥
यह त्रिगुणात्मिका प्रकृति सर्वप्रथम 'महत्तत्त्व' को . उत्पन्न करती है, जिसे 'बुद्धि' नाम से भी पुकारा जाता है। जड़ से उत्पन्न होने वाला पदार्थ जड़ ही होता है, अतः बुद्धि (महत्तत्त्व) भी जड़ ही है। पुनश्च पञ्चतन्मात्राओं का उद्भव होता है। शब्दादि पञ्चतन्मात्राओं (परमाणुओं) से प्राकाश, वायु, प्राप् (जल), पृथ्वी, तेजस् (अग्नि) का उद्भव होता है। पञ्चज्ञानेन्द्रियाँ पञ्च कर्मेन्द्रियाँ तथा मन का विकास (उद्भव) भी इसी क्रम में होता है। पुरुषतत्त्व सांख्यमत में प्रकृति तथा विकृति से सर्वथा भिन्न है। पुरुष का बन्ध तथा मोक्ष भी नहीं होता है। प्रकृति के ही बन्ध एवं मोक्ष होते हैं। सांख्यकारिका में कहा है कि