Book Title: Syadwad Bodhini
Author(s): Jinottamvijay Gani
Publisher: Sushil Sahitya Prakashan Samiti

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Page 224
________________ स्याद्वादबोधिनी-२०३ साहसातिशय प्रदर्शनमेतत् । चन्द्रस्यद्युतयस्तासां पानं तस्य तृष्णा ताम्-विधुमरीचिवानकामनां वहेम धारयेमेति दिग् । - भाषानुवाद - पूर्वोक्त प्रकार से श्री जिनवारणी के अनुसार कतिपयपदार्थों का विवेचन करके कलिकालसर्वज्ञ आचार्यप्रवर श्रीहेमचन्द्रसूरीश्वर जी महाराज अपनी विनय प्रस्तुत करते हुए कहते हैं * श्लोकार्थ-हे पूज्यप्रवर ! आपके द्वारा निरूपित समस्त वाविभव का यदि मैं वर्णन करने का साहस करूं तो यह मेरा साहस विशाल समुद्र को जंघाबल से तैरकर पार करने की अभिलाषा के समान तथा चन्द्रमा की चाँदनी का पान करने की लालसा की भाँति हास्यास्पद होगा। अर्थात् मैं आपके वाग् वैभव को पूर्णतः वणित करने में असमर्थ हूँ। 9 भावार्थ-शाब्दिक व्युत्पत्ति संस्कृतवृत्ति-टीका से ही गतार्थ है। अतः भाषानुवाद में पिष्टपेषण पुनरुक्ति करना उचित नहीं है ।। ३१ ॥

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